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________________ 130 जैन-न्याय को आचार्य अंकलंकदेव का अवदान का दूध रूप में परिणमन नहीं होता है, अपितु दधि आदि के रूप में होता है, तब आत्मा का ज्ञान रूप में परिणमन कैसे हो सकता है, क्योंकि ज्ञान तो स्वयं आत्मा है। क्या तर्क है भट्ट अकलंकदेव का, कि यदि अन्यथा ही परिणमन मानोगे तो स्वपक्ष साधन और परपक्षदूषण में भी यही प्रसंग आ जायेगा और इससे हमारे ही पक्ष की सिद्धि हो जायेगी।' यह शास्त्रार्थी पद्धति का समाधान है। द्वितीय अध्याय के अन्तिम सूत्र में प्रश्न उपस्थापित किया गया है कि चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त और नारायण कृष्ण की भी अकाल मृत्यु सुनी जाती है तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि उत्तम देह वालों की अकाल मृत्यु नहीं होती। इसका समाधान करते हुये कहा है कि चरमोत्तम एक पद नहीं है, अपितु चरम विशेषण है और उत्तम विशेष्य है। अतः केवल उत्तम शरीर वालों की अकाल मृत्यु में कोई बाधा नहीं है। हाँ, अन्तिम उत्तम शरीर वालों की अकाल मृत्यु नहीं होती है। जैसे- आम को पाल में समय से पहले पका दिया जाता है, वही आम का पकना कहलाता है। वैसे ही निश्चित मरणकाल से पहले आयु की उदीरणा हो जाती है, उसे अकाल मृत्यु कहते हैं। एक अन्य उदाहरण देकर कहा गया है कि जैसे गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है, इकट्ठा रखने पर नहीं। वैसे ही उदीरणा होने पर निश्चित समय से पहले मृत्यु हो जाती है। ___ 'कायप्रवीचारा आ ऐशानात्' सूत्र में आ+ऐशानात् में आ उपसर्ग को अभिविधि अर्थ में दिखाने के लिए सन्धि नहीं की गई है। ‘ऐशानपर्यन्तम्' कहने पर भी मर्यादा या अभिविधि का ज्ञान नहीं हो सकता था। इसी प्रकार 'अजीवंकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' सूत्र में अजीव से 'न जीवः' अर्थात् जीवभाव रूप अर्थ नहीं लेना है, अपितु 'अनश्वः' की तरह जीवभिन्न (अचेतन) अर्थ का ग्रहण करना अभीष्ट है। कितनी सूक्ष्मता भरी है भट्ट अकलंकदेव के तर्कों में, यह सहृदय समालोचक ही समझ सकते हैं। 'प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्' सूत्र में आशंकाकार कहता है कि यदि दीपक के प्रकाश की तरह संहार-विक्षर्प माना जायेगा तो आत्मा भी घटादि के समान छेदन-भेदन को प्राप्त हो जायेगा। इसके उत्तर में एक व्यावहारिक तर्क द्रष्टव्य है। सरदी-गरमी का प्रभाव चमड़े पर पड़ सकता है, आकाश पर नहीं। आत्मा का स्वरूप अछेद्य-अभेद्य है। अतः स्वभाव में ऐसी संभावना नहीं की जा सकती है।' बीज अंकुर में है या नहीं १. वही २/ २. वही २/५३ ३. वही ४/७ ४. वही, ५/१ ५. वही ५/१६
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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