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________________ भट्ट अकलंक की तर्कविदग्धता : तत्त्वार्थवार्तिक के सन्दर्भ में कहते हैं कि मोक्षार्थी भव्य ने मार्ग ही पूछा है, अतः प्रश्नानुरूप नार्ग का उपदेश सर्वप्रथम किया गया है। जैसे पटना जाने वाले लोगों में पटना के प्रति विप्रतिपत्ति नहीं होती है, पटना के मार्ग के प्रति विप्रतिपत्ति है । अतः उन्हें पटना के मार्ग का ही उपदेश देना समीचीन होता है। पुनः आशंका की गई कि मोक्ष जब प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं है तो उसका मार्ग बताना निष्प्रयोजन है। इसका समाधान किया गया है कि यद्यपि अनुमान से उसकी सिद्धि हो जाती है । जैसे -घटीयन्त्र का घूमना धुरी से, उसका घूमना जुते बैलों के घूमने से और बैलों के न घूमने से सबका घूमना रूक जाता है, उसी प्रकार कर्मोदय से गतिचक्र चलता है और गतिचक्र से वेदना रूपी घटीयन्त्र घूमता है और कर्मोदय की निवृत्ति होने पर चतुर्गति का चक्र रूक जाता है। तदनन्तर जिज्ञासु पूछता है कि बन्धपूर्वक मोक्ष होता तो मोक्षमार्ग का उपदेश न देकर पहले बन्ध के कारणों का उपदेश देना चाहिए था । इस जिज्ञासा का बड़ा ही सुन्दर तार्किक समाधान किया है कि कारागार में बद्ध व्यक्ति को मुक्ति के आश्वासन की तरह मोक्षमार्ग का प्रथम उपदेश आनन्ददायक है।' इस प्रकार उत्थानिका में ही भट्ट अकलंकदेव की तर्कविदग्धता का निदर्शन दृष्टिगत हो जाता है। जैनदर्शन की मान्यता है कि केवलज्ञान के हो जाने पर अन्य ज्ञानों की सत्ता नहीं रहती है । पूर्वपक्षी कहता है कि केवलज्ञान होने पर अन्य क्षायोपशमिक ज्ञानों का अभाव नहीं हो सकता है, अपितु दिन में तारागण की तरह विद्यमान रहने पर वे अभिभूत हो जाते हैं और अपना कार्य नहीं करते हैं । इसका तर्कपूर्ण समाधान करते हुए भट्ट अकलंकदेव का कथन है कि केवलज्ञान क्षायिक और विशुद्ध होता है, अतः उसके प्रकट हो जाने पर क्षयोपशमजन्य लेशतः अशुद्धि की भी सत्ता रह ही नहीं सकती । ‘जीवभव्याभव्यत्वानि च’ सूत्र की संरचना पर एक व्याकरणात्मक आशंका पूर्वपक्षी की है । पूर्वपक्षी कहता है - कि- 'त्व' भावार्थक प्रत्यय है । भाव में बहुवचन का प्रयोग करना समीचीन नहीं कहा जा सकता है। इसका उत्तर इस प्रकार दिया गया है कि- जीव, भव्य एवं अभव्य तीनों के भाव पृथक्-पृथक् हैं, एक समान नहीं । द्रव्य भेद से भाव में भी भिन्नता है। अतः पृथक्-पृथक् भावों के निर्देश के लिए बहुवचन का प्रयोग न केवल समीचीन है, अपितु अपेक्षित भी है। 'उपयोगो लक्षणम्' सूत्र के व्याख्यान में कोई प्रतिपक्षी दार्शनिक कहता है कि दूध १. तत्त्वार्थवार्तिक, उत्थानिका २. वही १/३०, ३. वही २/७ 129
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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