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________________ 128 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान माना है। वे कहते हैं 'तापाच्छेदाच्च निकषात् सुवर्णमिव पण्डितैः । परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो न तु गौरवात्।।' क्योंकि अन्धश्रद्धा जितनी आसान है, उतनी प्रतिपातिनी भी। इसी कारण न्याय-वैशेषिक दर्शन ने जिन सोलह के तत्त्वज्ञान से मुक्ति मानी है, उनमें तर्क भी एक है। वे तर्क को प्रमाणों का उपकारी मानते हैं। तर्कभाषा में कहा गया है- 'सं चायं तर्कः प्रमाणानामनुग्राहकः।' न्यायसूत्र (१.१.४०) में तर्क का स्वरूप कहते हुए उसे कारणोपपत्तिपूर्वक तत्त्वज्ञान में उपकारी कहा गया है। वात्स्यायन यद्यपि तर्क को प्रमाण नहीं मानते तथापि अनुग्राहक अवश्य मानते हैं। वे लिखते हैं-'तर्को न प्रमाण संग्रहीतों न प्रमाणान्तरं प्रमाणानामनुग्राहकस्तत्त्वज्ञानाय कल्पते।' स्पष्टतया तर्क स्वयं में प्रमाण. नहीं है, किन्तु अर्थसिद्धि में लिए या प्रतिपक्षी मत के खण्डन के लिए तर्क की उपयोगिता असंदिग्ध है। जैनन्याय के प्रतिष्ठापक आचार्यप्रवर भट्ट अकलंकदेव ने जिस सातवीं शताब्दी (न्यूनतम ६७६ ई०) में जन्म लेकर भारतीय न्यायशास्त्र में जैनन्याय को प्रतिष्ठित किया, वह समय दार्शनिकों में वाद-विवाद का समय था। शास्त्रार्थ के माध्यम से वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन किया जाता था और इसी आधार पर होती थी जय या पराजय। अतः उन्होंने अपने प्रतिपादन में तर्क की सरणि अपनायी और सभा में तार्किक के रूप में उन्हें प्रतिष्ठा मिली। कहा भी है “सदसि यदकलंकः कीर्तने धर्मकीर्तिः वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः।" 'प्रमाणमकलंकस्य' उक्ति तार्किक संसद में उसी प्रकार प्रतिष्ठित है, जिस प्रकार 'उपमा कालिदासस्य' 'भारवेरर्थगौरवम्' या 'दण्डिनःपदलालित्यम्। भट्ट अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में सैकड़ों तर्कों के द्वारा पूर्वपक्षियों की आशंकाओं को उठाकर उनका समाधान प्रस्तुत किया है। सब तर्कों का उल्लेख करना न तो इस लेख की सीमा में आ सकता है और न ही प्रासंगिक है। यहाँ उदाहरणार्थ कतिपय बिन्दु प्रस्तुत हैं, जिनसे उनकी तर्कविदग्धता तार्किकों के निकष पर परीक्षित होकर खरी उतरती है और उनके तर्क प्रमाण के साधन बनते हैं। ग्रन्थ की उत्थानिका में एक आशंका प्रस्तुत की गई है कि जब.मोक्ष अन्तिम, अनुपम एवं उत्तम पुरुषार्थ है तो उसी का उपदेश करना चाहिए था। सर्वप्रथम मोक्षमार्ग का उपदेश क्यों किया गया है? इसका तार्किक समाधान प्रस्तुत करते हुए तत्त्वार्थवार्तिककार
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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