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________________ भट्ट अकलंक की तर्कविदग्धता : तत्त्वार्थवार्तिक के सन्दर्भ में डॉ० जयकुमार जैन* श्रद्धा में जब तर्क का समावेश होता है, तब दर्शन जन्म लेता है। वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान ही दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य है। जब मभी दार्शनिक तर्क की सरणि से मुख्य अर्थ का साक्षात्कार करते हैं तो उनमें मतभेद क्यों ? यह प्रश्न न केवल सामान्य जनों को, अपितु श्रेष्ठ विचारकों को भी आन्दोलित करता है। आत्मा के स्वरूप के विषय में ही विचार करें तो यदि सांख्य आत्मा को कूटस्थ नित्य मानते हैं तो बौद्ध प्रतिक्षण परिवर्तनशील क्षणिक। नैयायिक-वैशेषिक गुणों में परिवर्तन मानते हैं तो मीसांसक अवस्था भेद का परिवर्तन मानते हुये भी नित्य। जैन अवस्था-भेद का परिवर्तन तो मानते हैं, किन्तु यह परिवर्तन अविच्छिन्न पर्याय परम्परा रूप स्वयं द्रव्य का लक्षण है। चार्वाक भूतचतुष्टय को ही आत्मा मानता है। इसी प्रकार आत्मा की मूर्तता-अमूर्तता के . विषय में भी मतवैभिन्य है। यह मतवैभिन्य कदाचित् तर्कजन्य है। तर्क की प्रामाणिकता को मान लेने के कारण ही कदाचित् प्रत्येक दार्शनिक यह समझ बैठा है कि उसका दर्शन पूर्ण एवं सत्य है किन्तु सब दर्शनों को पूर्ण एवं सत्य कैसे कहा जा सकता हैं ? इसीलिए हरिभद्रसूरि लोकतत्त्वनिर्णय में तर्क की निरर्थकता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं ज्ञायेरन हेतवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रियाः। ..... .. कालेनैतावता तेषां कृतः स्यादर्थनिर्णयः।।' - महाभारत में भी अप्रतिष्ठ कहकर तर्क की पूर्ण प्रामाणिकता स्वीकार नहीं की गई है, कहा भी है 'तर्कोप्रतिष्ठः श्रुतयोविभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम्। ___धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः।। इस सब कथनों के होते हुए भी तर्क की, युक्ति की महत्ता का निषेध नहीं किया जा सकता है। स्वयं हरिभद्रसूरि ने अन्यस्थल पर तर्क, युक्ति, परीक्षण को आवश्यक • रीडर, संस्कृत विभाग, एसडी०पोस्ट ग्रेजुएट कालेज, मुजफ्फरनगर
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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