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________________ 126 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान धारावाहिक ज्ञान यदि गृहीतग्राही अथवा अगृहीतग्राही होते हुए स्वार्थ का निश्चायक है तो वहे प्रमाण है। जैनदर्शन में पहली विचारधारा का प्रतिनिधित्व अकलंकदेव करते हैं। दूसरी विचारधारा के समर्थक हैं आचार्य अकलंक के अनुगामी विद्यानन्द और माणिक्यनन्दि। विद्यानन्द ने 'स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' में प्रयुक्त 'अपूर्व' पद की निरर्थकता प्रतिपादित की है। हेमचन्द्रसूरि ने भी 'प्रमाण-मीमांसा' में ग्रहीतग्राही ज्ञान को प्रमाण स्वीकार किया है (उनका तर्क है कि- द्रव्य की अपेक्षा से गृहीतग्राहित्व के प्रामाण्य का निषेध करते हैं अथवा पर्याय की अपेक्षा से) पर्याय की अपेक्षा से तो धारावाहिकज्ञान भी ग्रहीतग्राही नहीं है, क्योंकि पर्याय क्षणिक होती है। अतः उसका निराकरण करने के लिए अपूर्व पद देना व्यर्थ है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यद्यपि जैन दार्शनिकों में अपूर्व पद एवं धारावाहिकज्ञान के प्रामाण्य के विषय को लेकर किंचित् मतभेद है, फिर भी अकलंक की एक विशेष पद्धति रही है, जिसके अनुसार उन्होंने अन्य मतों की ऐकान्तिकता की समीक्षा करते हुए अनेकान्तवाद का पुट देकर उन्हें अपने अनुकूलं बनाने का प्रयत्न किया है। यद्यपि अपूर्व पद के विषय में भी किंचित् मतभेद है, फिर भी वह प्रमाण स्व का निश्चार्यक होता है इसमें कोई मतभेद नहीं है। इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव अपने पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा प्रतिपादित ज्ञानमीमांसा पर प्रमाण का भव्य महल बनाकर अपने द्वारा लिखित प्रमाणसंग्रह में उसका विवेचन प्रस्तुत किया है तथा उन्होंने जहाँ पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा निश्चित विषयों का विस्तार से विवेचन किया है, वहीं उन्होंने प्रमाण के विषय में अनेक नई एवं मौलिक उद्भावनायें एवं प्रस्थापनायें प्रस्तुत करके अपने साहसी और महान् व्यक्तित्व का परिचय देकर आगे के विद्वानों को इन विषयों पर विस्तार से विचार करने का मार्ग प्रशस्त किया है। १. जैनन्याय, पृष्ठ ५१ २. जैनन्याय, पृष्ठ ५३
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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