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भट्ट अकलंक की तर्कविदग्धता : तत्त्वार्थवार्तिक के सन्दर्भ में
तथा बीज से अंकुर भिन्न है या अभिन्न- सदृश आशंकाओं का समाधान अनेकान्त पद्धति से करते हुए राजवार्तिक में कहा है कि बीज अंकुर में कथञ्चित् है, कथञ्चित् नहीं। बीज अंकुर से कथंचित् भिन्न है, कथञ्चित् अभिन्न ।'
‘गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' सूत्र पर आक्षेप करता हुआ पूर्वपक्षी कहता है कि गुण संज्ञा जैनों की नहीं है। यदि होती तो द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक के समान गुणार्थिक नय भी होता। इसका सयुक्तिक समाधान दो प्रकार से किया गया है। एक तो स्वयं तत्त्वार्थ सूत्र में 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' सूत्र में गुण का कथन है । अन्य बात यह है कि 'गुणा एव पर्यायाः' ऐसा सामानाधिकरण्य रूप में यह प्रयोग सोने की अंगूठी की तरह समझा जा सकता है। पर्यायें गुणों से सर्वथा भिन्न नहीं है।
‘सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः । सूत्र में 'कर्मणः' पद पृथक् प्रयुक्त है। ‘कर्मयोग्यान्' ऐसा समस्तपद नहीं रखा गया है। इसका कारण यह है कि 'कर्मणः' पद षष्ठी का है, किन्तु इसका पंचमी विभकि में हेत्वर्थ में विपरिणमन करके दो सूत्र निकालना अभीष्ट है। इसीलिए भट्ट अकलंकदेव ने कहा है-‘कर्मणो योग्यानिति पृथक् विभक्त्युच्चारणं वाक्यान्तरज्ञापनार्थम्'। दो सूत्र इस प्रकार निष्पन्न होते हैं-१.कर्मणो जीवः सकषायो भवति । २ कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते। पुद्गल के विवेचन में प्रश्न उपस्थापित किया गया है कि - पुद्गल द्रव्य जब एक है तो अवरण, सुख-दुःख आदि अनेक कार्यों का निमित्त कैसे बन सकता है ? इसका समाधान किया गया है कि जैसे अग्नि में दाह, पाक, प्रताप, प्रकाश सभी की सामर्थ्य है वैसे ही पुद्गल द्रव्य में ऐसी सामर्थ्य है, उसका ऐसा ही स्वभाव है। इसी प्रकार कर्मबन्ध के विषय में आशंका की गई है कि जब वह अनादि है तो उसे अनन्त भी होना चाहिए, उसका अन्त कैसे हो सकता है ? इसके समाधान में तर्क दिया गया हैं कि बीजांकुर यद्यपि अनादि है, किन्तु अग्नि से बीज जला देने पर जैसे पुनः अंकुर नहीं हो पाता है, उसी तरह कर्मबीज के नष्ट हो जाने पर भवांकुर नहीं रह पाता है। अतएव कर्मबन्ध अनादि तो है, पर अनन्त नहीं । '
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• उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भट्ट अकलंकदेव के तर्क सामर्थ्यवान्, कथ्य को सिद्ध करने में समर्थ तथा प्रमाणसाधन रूप हैं।
१. वही ५/२२
२. वही ५ / ३८
३. वही ८/२
४. वही, ८/४
५. वही, १०/२