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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
अकलंकदेव के उल्लिखित मन्तव्य को सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने इस . प्रकार व्यक्त किया है____ अकलंकदेव के कथन से सूत्रकार के कथन में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती, क्योकि अकलंकदेव ने अक्ष-आत्मा से होने वाले अतीन्द्रिय ज्ञान को ही मुख्य प्रत्यक्ष कहा है। इस दृष्टि से इन्द्रिय और मन से होने वाला मतिज्ञान परापेक्ष होने से परोक्ष ही है, किन्तु इसमें कुछ स्पष्टता पाई जाती है और लोकव्यवहार में उसे प्रत्यक्ष. कहा जाता है इसलिए उसे सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष कहा है।'
इस प्रकार अकलंक ने विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा अस्पष्ट ज्ञान को परोक्ष. प्रमाण माना है। प्रमाण लक्षण विषयक चर्चा :
आचार्य कुन्दकुन्द प्रभृति आचार्यों का अनुसरण करते हुए आचार्य समन्तभद्र द्वारा प्रणीत प्रमाण में स्वपरावभासकत्व तत्त्व को अकलंक ने भी स्वीकार किया है। . पूज्यपाद की प्रमाण की मीमांसा (ज्ञान-प्रमाण) को भी अकलंक ने स्वीकार किया परन्तु सिद्धसेन कृत प्रमाण लक्षण' में 'बाधविवर्जित' विशेषण उन्हें स्वीकार्य नहीं हुआ। अकलंक ने एक ओर लधीयस्त्रय में 'व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम्' अर्थात् स्वपरावभासी व्यवसायात्मक ज्ञान को प्रमाण कहा तो दूसरी ओर अष्टशती में 'प्रमाणमविसंवादिज्ञानमनधिगतार्थलक्षणत्वात्'- अनधिगतार्थक अविसंवादि ज्ञान को प्रमाण कहा है। प्रमाणसंग्रह के नवें प्रस्ताव में प्रमाण और नय का उपसंहार करते हुए अकलंक ने प्रमाण लक्षण इस प्रकार किया है____ "ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते” कारिका (८६)। इसी कारिका की विवृति में वे आगे लिखते हैं कि
“मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्, तदेव प्रमाणं न शब्दादिः अन्यत्रोपचारात्। प्रमाणमेव हिं ज्ञानं मत्यज्ञानादेरनधिगतेः।"
___ उक्त विभिन्न लक्षणों में एक तत्त्व समान है और वह है ज्ञान को प्रमाण माना जाना। फिर चाहे वह व्यवसायात्मक हो अथवा अनधिंगतार्थक। वस्तुतः दर्शनशास्त्र में "प्रमाकरणं प्रमाणम्” इस विषय में सभी एकमत हैं, परन्तु वह करण क्या है, यही मतभेद का कारण है। अकलंक का मानना है कि प्रमाण मात्र को व्यवसायात्मक होना चाहिए क्योंकि कोई भी ज्ञान निर्विकल्पक या अव्यपदेश्य नहीं हो सकता। यह सम्भव १. जैनन्याय, पं. कैलाशचन्द्रशास्त्री पृष्ठ, १३२ २. प्रमाणं स्वपरामाभिज्ञानं बाधविवर्जितम्”-न्यायावतार, कारिका १