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________________ श्रीमद् अकलंक देव और उनका प्रमाण संग्रह 123 अभाव की स्थिति तक सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत स्वीकार्य है। उन्होंने सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष के भी दो भेद किए १. इन्द्रिय प्रत्यक्ष और २. अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष और इन्द्रिय प्रत्यक्ष के अन्तर्गत मतिज्ञान को ग्रहण किया तथा दूसरी ओर अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष में स्मृति को अकलंक ने ग्रहण किया है, क्योंकि उनका मानना है कि स्मृति में मन का ही मुख्य व्यापार होता है। अकलंक का तर्क है कि यदि मतिज्ञान को इन्द्रिय प्रत्यक्ष माना जाये तो उसके सहयोगी स्मृति आदि को भी प्रत्यक्ष के अन्तर्गत ग्रहण करना तर्कसम्मत है। इस सन्दर्भ में प्रमाण संग्रह की प्रथम कारिका की विवृति दृष्टव्य है "प्रत्यक्षं विशदज्ञानं तत्त्वज्ञानं विशदम्, इन्द्रियप्रत्यक्षम्, अनिन्द्रियप्रत्यक्षम् अतीन्द्रिय प्रत्यक्षं त्रिधा।.....परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि स्मरणपूर्वकम् । हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं द्वे एव प्रमाणे इति शास्त्रार्थस्य संग्रहः....। - इस प्रकार अकलंक ने विशदज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण माना है। यद्यपि बौद्ध भी विशदज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं, परन्तु वे निर्विकल्पक ज्ञान को ही प्रत्यक्ष की परिधि में रखते हैं। अतः उनका निर्विकल्पक ज्ञान विषय-विषयी सन्निपात के बाद होने वाले सामान्यावभासी अनाकारदर्शन के समान है जबकि अकलंक निश्चयार्थक एवं साकार स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण स्वीकार करते हैं। अकलंक द्वारा मान्य विशदज्ञान में 'साकार' और 'अञ्जसा' पद महत्त्वपूर्ण हैं। प्रथमतः साकार पद से निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का निराकरण तथा द्वितीयतः अञ्जसा पद संव्यवहार से प्रयोजनीय न होकर परमार्थ रूप में विशद है। - अनुमान आदि ज्ञानों से अधिक प्रतिभासन होना वैशद्य है। जिस तरह अनुमान आदि ज्ञान अपनी उत्पत्ति में लिंग ज्ञान आदि की अपेक्षा रखते हैं, उस तरह प्रत्यक्ष ज्ञान अपनी उत्पत्ति में किसी अन्य ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखता है। यही इसका वैशद्य है। परोक्ष प्रमाण : अकलंक ने अस्पष्ट ज्ञान को परोक्ष ज्ञान माना है। चक्षु आदि इन्द्रियों के निमित्त से होने वाला ज्ञान एकदेश रूप से स्पष्ट होता है, अतः उसे सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष माना है। आचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में तत्त्वार्थ सूत्रकार और १. ज्ञानमायंतिः संज्ञा चिन्ताचाभिनिबोधनम् । प्राङ्नाम योजनाच्छेषं श्रुतंशब्दानुयोजनात्" प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा-न्यायविनिश्चय श्लोक३ लघीयस्त्रय, कारिका १० २. लघीयस्त्रय, कारिका ३ "प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाणे इति संग्रहः ।।"
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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