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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
साध्य-साधन लक्षण, साध्याभास, सदसदेकान्त में साध्य प्रयोग की असंभवता, सामान्यविशेषात्मक वस्तु की साध्यता तथा संशयादि आठ दोषों का परिहार है।
४. चतुर्थ प्रस्ताव- इस प्रस्ताव में ११-१/२ कारिकायें हैं। इसमें अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु का समर्थन किया गया है। अनुपलब्धि के भेदों का भी निदर्शन है।
५. पंचम प्रस्ताव- इस प्रस्ताव में १०-१/२ कारिकायें हैं, जो हेत्वाभास के विवेचन से सम्बन्धित हैं। इसमें अन्तर्व्याप्ति का भी विवेचन किया गया है। .
६. षष्ठ प्रस्ताव- इस प्रस्ताव में १२-१/२ कारिकायें हैं इसमें शास्त्रार्थ विषयकं विवेचन है जिसमें मुख्यतः वाद, जय, पराजय आदि का स्वरूप बतलाया गया है।
७.सप्तम प्रस्ताव- इस प्रस्ताव में १० कारिकायें हैं, जो प्रवचन के लक्षण, सर्वज्ञता के विषय में सम्भावित सन्देहों के निराकरण और अपौरुषेयत्व आदि के खण्डन से सम्बन्धित हैं।
८. अष्टम प्रस्ताव- इस प्रस्ताव में १३ कारिकायें हैं, जिनमें सप्तभंगी का.. विवेचन तथा नैगमादि नयों का कथन है। .
६. नवम प्रस्ताव- इस प्रस्ताव में मात्र २ कारिकायें हैं, जो प्रमाण, नय और निक्षेप के उपसंहार से सम्बन्धित हैं। प्रमाण के अन्तर्गत प्रत्यक्ष का लक्षण -
प्रमाणसंग्रह ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही निम्न कारिका है, जिसमें प्रमाण के दो भेदप्रत्यक्ष और परोक्ष का उल्लेख है
__ प्रत्यक्षं विशदज्ञानं त्रिधा श्रुतमविप्लवम् ।
परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः।।" आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञान के दो भेद किए हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । तत्त्वार्थ सूत्रकर्ता ने ‘मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम्' 'तत्प्रमाणे', 'आद्ये परोक्षम्' 'प्रत्यक्षमन्यत्' सूत्रों में मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान को प्रमाण रूप में स्वीकार किया है। इनमें से आदि के मति एवं श्रुत परोक्ष और शेष ज्ञान प्रत्यक्ष माने गए हैं। अकलंकदेव ने उक्त सरणि को आधार बनाया और प्रमाण के दो भेद किए-प्रत्यक्ष और परोक्ष। विशदज्ञान को प्रत्यक्ष तथा प्रत्यभिज्ञा आदि ज्ञानों को परोक्ष प्रमाण के रूप में स्थापित किया। इतना ही नहीं आचार्य अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष के सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष
और मुख्य प्रत्यक्ष भेद किए और स्मृति आदि इतर दर्शनों में मान्य प्रमाणों को सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और परोक्ष श्रुतज्ञान में अन्तर्भूत किया। विशेष रूप से सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष की सीमा का निर्धारण भी किया। अकलंक का मानना है कि शब्द संसर्ग के