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श्रीमद् अक़लंक देव और उनका प्रमाण संग्रह
प्रमाणसंग्रह
ने न्याय प्रमाणशास्त्र का जैन परम्परा में जो प्राथमिक निर्माण किया, जो परिभाषायें, जो लक्षण परीक्षण किया, जो प्रमाण प्रमेय आदि का वर्गीकरण किया और परार्थानुमान तथा वाद, कथा आदि परमत प्रसिद्ध वस्तुओं के सम्बन्ध में जो प्रणाली स्थिर की, संक्षेप में अब तक जैन परम्परा में नहीं, पर अन्य परम्पराओं में प्रसिद्ध ऐसे तर्कशास्त्र के अनेक पदार्थों को जैन दृष्टि से जैन परम्परा में जो सात्मीभाव किया तथा आगम सिद्ध अपने मन्तव्यों को जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने योग्य बनाया, वह सब छोटे-छोटे ग्रन्थों में विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्व का तथा न्याय प्रमाण स्थापना युग का द्योतक है।”” यहाँ सम्प्रति प्रमाणसंग्रह और उसका वैशिष्ट्य प्रस्तुत है - न्यायशास्त्र का एक नाम प्रमाणशास्त्र भी है। प्रमाणसंग्रह अकलंकदेव की महत्त्वपूर्ण कृति है । इस ग्रन्थ के नाम के विषय में पं. सुखलालजी संघवी का मानना है कि यह नाम दिङ्नाग के 'प्रमाणसमुच्चय' तथा शान्तरक्षित के 'तत्त्व संग्रह' का स्मरण दिलाता है। डॉ०. महेन्द्रकुमारजी ने भी उक्त मान्यता का समर्थन किया है । प्रमाणसंग्रह कृति में उपलब्ध विषय सामग्री भी उक्त नाम को चरितार्थ करती हैं। इस ग्रन्थ में मुख्यतः प्रमाणों एवं युक्तियों का ही संग्रह है । अकलंकदेव की यह अन्तिम कृति है । इस सन्दर्भ में न्यायाचार्य डॉ० महेन्द्रकुमार का कथन है कि '... इसकी प्रौढ़ शैली से ज्ञात होता है कि यह अकलंकदेव की अन्तिम कृति है और इसमें उन्होंने अपने यावत् अवशिष्ट विचारों को लिखने का प्रयास किया है, इसीलिए यह इतना गहन हो गया है। इसमें हेतुओं की उपलब्धि - अनुपलब्धि आदि अनेकों भेदों का विस्तृत विवेचन है जबकि न्यायविनिश्चय में इनका नाम ही लिया गया
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प्रमाणसंग्रह में कुल ८६-१/२ कारिकायें हैं, जो नौ प्रस्तावों में विभाजित हैं। उसकी विषयवस्तु इस प्रकार है
१. प्रथमं प्रस्ताव - इस प्रस्ताव में ६ कारिकायें हैं। इसमें प्रमुख रूप से (१) प्रत्यक्ष का लक्षण (२) प्रत्यक्षानुमानागम और (३) उनका फल तथा (४) मुख्य प्रत्यक्ष का लक्षण आदि का निरूपण है।
२. द्वितीय प्रस्ताव - इस प्रस्ताव में ६ कारिकायें हैं। इसमें मुख्य रूप से परोक्ष प्रमाण के भेद - स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का निरूपण है ।
३. तृतीय प्रस्ताव - इस प्रस्ताव में १० कारिकायें है। इसमें अनुमान के अंग,
१. दर्शन और निन्त, पृष्ठ ३६५
२. अकलंक ग्रन्थत्रय - प्रस्तावना, डा० महेन्द्रकुमार जैन, पृष्ठ- ३६