SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री मद् अकलंक देव और उनका प्रमाण संग्रह डॉ० सुरेशचन्द जैन* अकलंक के पूर्व जैनन्याय - ईसा की प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्भवतः सर्वप्रथम ज्ञान की स्वप्रकाशकता का सूत्रपात किया, जो परवर्ती आचार्यों के.. लिए सर्वमान्य हुआ। आचार्य उमास्वामी (गृद्धपिच्छाचार्य) ने 'प्रमाणनयैरधिगमः” सूत्र द्वारा प्रमाण की चर्चा ही नहीं की, अपितु प्रमाण की तरह नय को भी प्रमुख स्थान दिया। उन्होंने पाँच ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल) को ही प्रमाण के रूप में स्थापित किया तथा “मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्" सूत्र • के माध्यम से अन्य दर्शनों में मान्य प्रमाणों का अन्तर्भाव परोक्ष प्रमाण में किया है। तत्पश्चात् आचार्य समन्तभद्र एवं सिद्धसेन दिवाकर ने उक्त आधार पर प्रमाण विषयक चर्चा को स्थायित्व प्रदान किया। आचार्य समन्तभद्र ने जैनदर्शन के निहितार्थ तत्त्व को ‘अनेकान्तवाद’ और सप्तभङ्गीवाद की प्रक्रिया को दार्शनिक दिशा की प्रक्रिया (Process) के रूप में प्रचलित ही नहीं किया, अपितु अनेकान्त में अनेकान्त की योजना करने की प्रक्रिया भी निरूपित की। प्रमाण का दार्शनिक लक्षण 'स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि लक्षणम्' की स्थापना की। इसके साथ ही आचार्य समन्तभद्र ने जैनपरम्परा में सम्भवतया सर्वप्रथम 'न्याय' शब्द का प्रयोग करते हुए स्याद्वाद को न्यायशास्त्र में गुम्फित किया। * इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर अकलंकदेव के पूर्व तक ( उमस्वामी, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, पूज्यपाद, श्रीदत्त, पात्रकेसरी) जैनन्याय सम्बन्धी प्रमाण की रूपरेखा आगमिक शैली में स्थापित हो चुकी थी । जैनन्याय के प्रस्थापक के रूप में विश्रुत आचार्य अकलंकदेव ने तार्किक शैली में प्रमाण की स्थापना की है जिसे दोनों परम्पराओं ( दिगम्बर और श्वेताम्बर) के परवर्ती प्रमाण - मीमांसक आचार्यों ने यथावत् स्वीकार किया। इस सन्दर्भ में पं० सुखलालजी संघवी का यह कथन सर्वथा उपयुक्त है - "अकलंक निदेशक, श्री गणेशवर्णी दि० जैन संस्थान, नरिया, वाराणसी, उ०प्र० १. तत्त्वार्थसूत्र ११६, २. वही १1१० ३. परस्परेक्षान्वय-भेदलिंगतः प्रसिद्वसामान्यविशेषयोस्तव समग्रतास्तिा स्वपरविभासकं यथा प्रमाण भुविबुद्धि लक्षणम् । ४. जैनन्याय, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृष्ठभूमि, पृष्ठ- ८ *
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy