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लघीयस्त्र्य और उसका दार्शनिक वैशिष्ट्य
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कथंचित् सदसदात्मक ही मानना चाहिए, तभी उसमें अर्थक्रिया सम्भव है। नय व्यवस्था :
___ द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु में जो भेद और अभेद विषयक अभिप्राय हैं, उन्हें जब दार्शनिक अपने-अपने अभिप्राय को स्वीकार करते हुए दूसरे के अभिप्राय का निराकरण नहीं करते हैं तब वे नय कहलाते हैं और जब वे दूसरे के अभिप्राय का निराकरण करते हुए अपने ही एकाकी अभिप्राय को वस्तु का पूर्ण स्वरूप मानते हैं तब वे नय न होकर नयाभास अथवा मिथ्यानय कहलाते हैं। इसी को समन्तभद्राचार्य ने “निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत" के रूप में प्रतिपादित किया है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक के भेद से नय दो प्रकार का है। द्रव्यार्थिक नय के संग्रह, नैगम और व्यवहार- ये तीन भेद हैं. और पर्यायार्थिक नय के ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवम्भूत- -ये चार भेद हैं। यहाँ अकलंकदेव ने विभिन्न दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को परं के अभिप्राय का निराकरण करके केवल अपने अभिप्राय को वस्तु का सर्वथा स्वरूप स्वीकार करने के कारण विभिन्न नयाभासों में गर्भित किया हैं, उनके अनुसार वेदान्तियों का ब्रह्माद्वैतवाद सन्मात्र तत्त्व के जीवादि भेदों का निराकरण करता है। अतः वह संग्रहन्याभास है। नैयायिक-वैशेषिक, गुण-गुणी और
अवयव-अवयवी में अत्यन्त भेद मानते हैं, जबकि वे सर्वथा भिन्न नहीं हैं, अपितु किसी अपेक्षा से वे अभिन्न भी हैं। अतः वे भी नैगमाभास कहे जा सकते हैं। नयों का क्रम भेद : .. सामान्य रूप से आगमिक-परम्परा में नयों के क्रम में सर्वप्रथम नैगम नय का उल्लेख किया गया है, किन्तु अकलंकदेव ने संग्रह नय को प्रथम स्थान दिया है। इसका कारण यह है कि आगमिक-परम्परा में जो नयों का क्रम निर्धारित किया गया है; वह विषय की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता एवं पूर्व-पूर्व का नय उत्तर-उत्तर नय में हेतु होने रूप दो दृष्टियों से व्यवस्थित है, किन्तु न्यायशास्त्र में समस्त नास्तिकों के विवादों का निराकरण करने के लिए समस्त पदार्थों के अस्तित्व के सूचक संग्रह नय को प्रथम स्थान दिया है।
आचार्य अकलंकदेव के अनुसार स्व और पर का ज्ञान प्रमाण है। जानने का
१. आप्तमीमांसा, कारिका १०८ २. लघीयस्त्रय, कारिका ३८, ६६ ३. लघीयस्त्रय, कारिका ३२ ४. लघीयस्त्रय, कारिका ३८