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जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
अनेक दार्शनिकों ने तैमरिक आदि इन्द्रियज्ञान को प्रत्यक्षाभास कहा है, किन्तु अकलंकदेव ने इसे कथंचित् प्रत्यक्ष करते हुए स्पष्ट किया है कि- जो ज्ञान जिस विषय में अविसंवादी होता है वह उस विषय में प्रमाण होता है और जिस विषय में विसंवादी होता है उस विषय में अप्रमाण होता है' अर्थात् संशयज्ञान आदि सभी प्रमाणाभास स्वरूप अथवा द्रव्य की अपेक्षा से प्रमाण हैं, क्योंकि वे उतने अंश में अविसंवादी है। अतः अविसंवादी होने से सविकल्पक ज्ञान ही प्रमाण है ।
प्रमाण का विषय :
प्रमाण के विषय के सम्बन्ध में आचार्य अकलंकदेव का स्पष्ट मत है कि.. द्रव्यपर्यायात्मक अन्तस्तत्त्व और बाह्य घटादि रूप अर्थ प्रमाण के विषय हैं क्योंकि कोई दार्शनिक केवल द्रव्य रूप तत्त्व मानते हैं, कोई-कोई पर्याय रूप तत्त्व मानते हैं और कोई द्रव्य रूप और पर्याय रूप तत्त्वों को मानकर भी दोनों को सर्वथा भिन्न ह मानते हैं। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर अकलंकदेव ने अर्थ को द्रव्य पर्यायात्मा कहा है“तद् द्रव्यपर्यायात्मार्थो बहिरन्तश्च तत्त्वतः । ३
बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने लिखा है कि- “अर्थक्रिया समर्थ यत् तदत्र परमार्थ सत्”* अर्थात् जो अग्न्यादि पदार्थ अपनी दाह - पाक आदि रूप क्रिया में समर्थ होता है, उसे पारमार्थिक सत् कहते हैं । यहाँ अकलंकदेव का कहना है कि - अर्थक्रिया या तो क्रम से होती है या अक्रम से अर्थात् युगपत् होती है, किन्तु वस्तु को सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक मानने पर न तो क्रम से ही अर्थक्रिया होना संम्भव है और न अक्रम से ही अर्थक्रिया होना सम्भव है जबकि उस अर्थक्रिया को परमार्थभूत अर्थों का लक्षण माना गया है
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अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः।
क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता ।।
इस प्रसंग में आचार्य अकंलकदेव का कहना है कि- उत्पाद, व्यय और धौंव्य रूप परिणमन वाले पदार्थ में ही अर्थक्रिया सम्भव होने से द्रव्यपर्यायात्मक अर्थ ही प्रमाण का विषय है। वस्तु को कथंचित् भेदाभेदात्मक, कथंचित् नित्यानित्यात्मक और
१. लघीयस्त्रय, कारिका २२
२. लघीयस्त्रय, कारिका २३-२४
३. लघीयस्त्रय, कारिका ७
४. प्रमाणवार्तिक, २/३
५. लघीयस्त्रय, कारिका ८
६. लघीयस्त्रय, कारिका ७