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लघीयस्त्र्य और उसका दार्शनिक वैशिष्ट्य
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में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष-ये दो भेद करके स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष की कोटि में समाहित करके सार्वकालिक समाधान प्रस्तुत किया है। अकलंकदेव की इस भेद-व्यवस्था से यह फलित हो गया कि-अवग्रहादि में इन्द्रियों की प्रधानता है, अतः ये इन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं और स्मृति आदि में अनिन्द्रिय अर्थात् मन की प्रधानता है, अतः ये अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं।
बौद्ध दार्शनिकों के अनुमान प्रमाण में पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष असत्त्व- इन तीनों रूपों को हेतु का लक्षण माना है, किन्तु आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि- साध्य के साथ अविनाभावनियम का पूरी तरह से निश्चय ही हेतु का एक मात्र लक्षण है। .
लिङ्गात् साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात्।' - यहाँ पक्षधर्मत्व. आदि तीनों रूप सदोष हेतु में भी पाये जाने के कारण अकलंकदेव ने इन्हें हेतु का लक्षण स्वीकार नहीं किया है। बौद्ध दार्शनिकों ने स्वभाव हेतु, कार्य हेतु एवं अनुपब्धि हेतु- इन तीन को हेतु का भेद मानकर “यत् क्षणिकं तत् सर्वं सत्" को तादात्म्य सम्बन्ध (स्वभाव हेतु) और धूम एवं अग्नि में तदुत्पत्ति सम्बन्ध (कार्य हेतु) तथा यहाँ घट नहीं है, अनुपलब्ध होने से, इस अनुपलब्धि हेतु में तादात्म्य सम्बन्ध मानकर अपने सिद्धान्त की.पुष्टि की है, किन्तु अकलंकदेव का कहना है किसाध्य. के अभाव में साधन का अभाव रूप जो अन्यथानुपपत्ति नियम है उसके बिना तादात्म्य और तदुत्पत्ति को जानना भी सम्भव नहीं है, क्योंकि आकाश में स्थित चन्द्रमा न तो जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा का स्वभाव है और न ही कार्य है, फिर भी जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा से आकाश में स्थित चन्द्रमा का अनुमान किया जाता है। इसी प्रकार आकाश में कृत्तिका नक्षत्र के उदय से भविष्य में उदित होने वाले शकट नक्षत्र का अनुमान होता है। आज के सूर्योदय से कल के सूर्योदय का अनुमान होता है और इसी प्रकार सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण का भी अनुमान होता है। यहाँ आचार्य अकलंकदेव ने विस्तार से परमत-सम्मत हेतुओं का विविध तर्कों के माध्यम से खण्डन करके अविनाभाव सम्बन्ध को ही हेतु का सम्यक् लक्षण सिद्ध किया है तथा अन्य वादियों द्वारा माने गये प्रमाण-भेदों का प्रत्यक्ष और परोक्ष-इन दो प्रमाणों में ही अन्तर्भाव किया है। १. लघीयस्त्रय, कारिका १२ २. लघीयस्त्रय, कारिका १३ ३. विस्तार के लिए देखें- लघीयस्त्रय, कारिका १० से २१