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जैन- न्याय को आचार्य अंकलंकदेव का अवदान
फल है।'
परोक्ष प्रमाण के सम्बन्ध में आचार्य अकलंकदेव का कहना है कि मति, स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध ( अनुमान) नाम योजना से पहले. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है तथा शब्द योजना होने पर श्रुत अर्थात् परोक्ष है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को मतिज्ञान के ही पर्यायवाची माना है।` आगमिक-परम्परा के अनुसार ये सभी ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं, क्योंकि ये सभी इन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न होते हैं । इसी को आचार्य कुंदकुंद ने इस प्रकार कहा है कि- जो पर की सहायता से वस्तु का ज्ञान होता है, वह परोक्ष है और जो केवल . आत्मा के द्वारा वस्तु का ज्ञान होता है, वह प्रत्यक्ष है। किन्तु अन्य सभी दार्शनिकों के इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है।
सर्वार्थसिद्धिकार के सामने जब यह प्रश्न उठा कि इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष और इन्द्रियातीत ज्ञान को परोक्ष मानना चाहिए।' तो पूज्यपाद को कहना पड़ा कि ऐसी. स्थिति में सर्वज्ञ का ज्ञान प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष हो जायेगा, क्योंकि उनका ज्ञान इन्द्रियजन्य नहीं है।' इसी आशंका का विशेष समाधान करते हुए आचार्य अकलंकदेव ने बतलाया कि न्याय वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध आदि सभी दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और जैन आगमिक - परम्परा उसे परोक्ष मानती है । अतः अकलंकदेव
इन्द्रियजन्य ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर इस समस्या का समाधान प्रस्तुत किया है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि- सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार भेद हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो गया कि जिसे आगमिक - परम्परा में मतिज्ञान कहा है, उसे ही दार्शनिक - परम्परा में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है। अब समस्या यह थी कि तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम' के अनुसार स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध - ये मतिज्ञान के ही पर्यायवाची हैं। अतः ये भी सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में आ जायेंगे ? तब आचार्य अकलंकदेव ने लघीयस्त्रय १. लघीयस्त्रय, कारिका ७
२. लघीयस्त्रय, कारिका १०-११
३. तत्त्वार्थसूत्र, १/१३
४. प्रवचनसार १/५८
५. सर्वार्थसिद्धि, १/१२ टीका
६. सर्वार्थसिद्धि, १/१२ टीका
७. मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ता ऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् - तत्वार्थसूत्र, १ /१३
८. सण्णा सदी मदी चिंता चेदि (४१) षट्खण्डागम, पु० १३, पृ० २४४ ६. लघीयस्त्रय, कारिका ६१ की स्वोपज्ञ विवृति