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________________ लघीयस्त्र्य और उसका दार्शनिक वैशिष्ट्य 13 यद्यपि आचार्य अकलंकदेव द्वारा स्वोपज्ञ विवृति में अन्तिम निक्षेप परिच्छेद को स्वतंत्र न मानने से छह ही परिच्छेद हैं, किन्तु लघीयस्त्रय के टीकाकार प्रभाचन्द्र और अभयचन्द्रसूरि ने सात परिच्छेदों में ही ग्रन्थ को विभाजित कर टीका लिखी है। अतः सात परिच्छेद ही सम्प्रति विद्वानों द्वारा मान्य हैं। लघीयस्त्रय का दार्शनिक वैशिष्ट्य : ___लघीयस्त्रय एक दार्शनिक ग्रन्थ है और दर्शन के क्षेत्र में रचे गये मूल संस्कृत ग्रंथों की परम्परा में बेजोड़ है। इसके कुछ दार्शनिक सिद्धान्त आगमिक-परम्परा का निर्वाह करते हुए भी अपनी कुछ विशेषता लिये हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही आचार्य अकलंकदेव ने "प्रमाणे इति संग्रह" ऐसा वाक्य लिखकर “प्रमाणे" पद में द्विवचन का प्रयोग किया है। इससे उमास्वामी द्वारा उल्लिखित आगमिक परम्परा-का समर्थन किया है कि प्रमाण दो ही हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । इनके अतिरिक्त अन्य प्रमाण नहीं हैं और यदि किन्हीं दार्शनिकों ने दो से ज्यादा प्रमाण माने हैं तो वे सभी इन्हीं दो प्रमाणों में अन्तर्भूत हैं। लोक में जो इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान के रूप में स्वीकार किया गया है, उससे संगति बैठाने के लिए अकलंकदेव ने स्पष्टज्ञान रूप प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद करके इन्द्रियजन्यज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की कोटि में समाहित किया है और लोकमान्यता को प्रतिष्ठा देते हुए इन्द्रियज्ञान को व्यवहार से प्रत्यक्ष प्रमाण माना है और निश्चय से तो मुख्य प्रत्यक्ष को ही वस्तुतः प्रत्यक्ष प्रमाण कहा है। बौद्धदार्शनिकों ने स्वसम्मत प्रत्यक्ष के चार भेदों में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष को भी समाहित किया है। ... . आचार्य अकलंकदेव की दृष्टि इस रूप में स्पष्ट है कि जो आत्ममात्र सापेक्ष स्वावलम्बी ज्ञान है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है और जो पर सापेक्ष ज्ञान है वह परोक्ष प्रमाण है।' उन्होंने सांव्यवहारिक के भी इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष-ये दो भेद किये - आगम में सामान्य ग्रहण को दर्शन कहा है, किन्तु अकलंकदेव के अनुसार इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होने पर सत्ता सामान्य का दर्शन होता है, तत्पश्चात् पदार्थ के आकार को लिये हुए जो निर्णयात्मक ज्ञान होता है उसे अवग्रह कहते हैं। उन्होंने मतिज्ञान के उन्हीं तीन सौ छत्तीस भेदों का उल्लेख किया है, जो आगमिक-परम्परा से प्राप्त हैं। उनके अनुसार पूर्व-पूर्व का ज्ञान प्रमाण और उत्तर-उत्तर का ज्ञान उसका १. लघीयस्त्रय, कारिका ३ . .
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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