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________________ जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान तृतीय 'प्रवचन प्रवेश' प्रवचन और निक्षेप इन दो परिच्छेदों में विभाजित है । इस प्रकार लघीयस्त्रय में संकलित तीन प्रकरणों में कुल सात परिच्छेद हैं। आचार्य अकलंकदेव के इस लघीयस्त्रय पर स्वोपज्ञ विवृति भी उपलब्ध है। इसके नामकरण के सम्बन्ध में पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने लिखा है कि ग्रन्थ बनाते समय अकलंक देव को लघीयस्त्रय नाम की कल्पना नहीं थी, जो यथार्थ है । लघीयस्त्रय का परिमाण - 11 सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित अकलंकग्रन्थत्रय के अन्तर्गत संकलितं लघीयस्त्रय में कुल अठहत्तर कारिकाएँ हैं और माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित लघीयस्त्रयादिसंग्रह में सतहत्तर कारिकाएँ हैं । इनमें "लक्षणं क्षणिकैकान्ते.., नामक पैंतीसवीं कारिका नहीं है और न ही इस कारिका पर अभयदेवसूरि ने. तात्पर्यवृत्ति लिखी है जबकि स्वयं आचार्य अकलंकदेव ने इस पर स्वोपज्ञ विवृति लिखी है । अकलंकग्रन्थत्रय के अन्तर्गत लघीयस्त्रय के द्वितीय 'नय प्रवेश' के अन्तं में “मोहेनैव परोऽपि कर्मभिरिह....” नामक कारिका उपलब्ध है, किन्तु इसकी मूलग्रन्थ के साथ संगति न होने से इसे पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने 'प्रक्षिप्त माना है। लघीयस्त्रय में उपलब्ध कुल सात परिच्छेदों के नाम और उनकी कारिकाओं की संख्या इस प्रकार है प्रमाण प्रवेश : 112 प्रत्यक्ष परिच्छेद प्रमेय (या प्रमाण विषय) परिच्छेद परोक्ष परिच्छेद आगम परिच्छेद नय प्रवेश : नय परिच्छेद प्रवचन प्रवेश : प्रवचन (या श्रुतोपयोग) परिच्छेद निक्षेप परिच्छेद १. अकलंकग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० ३४ २. अकलंकग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० ३५ • ६-१/२ कारिकाएँ ३ कारिकाएँ ११-१/२ कांरिकाएँ ८ कारिकाएँ २१ कारिकाएँ २२ कारिकाएँ ६ कारिकाएँ ७८ कुल कारिकाएँ
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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