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लघीयस्त्र्य और उसका दार्शनिक वैशिष्ट्य
दि० जैन ग्रन्थमाला द्वारा वि० स० १६७२ में प्रकाशित एवं पण्डित कल्लप्पा भरमाप्पा निट्वे द्वारा संशोधित लघीस्त्रयादिसंग्रह नामक संकलन में स्वरूप संबोधन को भी शास्त्रार्थी अकलंकदेव की कृति के रूप में संग्रहीत किया है ।
लघीयस्त्रय:
विभिन्न स्रोतों के माध्यम से उपलब्ध पुष्ट प्रमाणों के आधार पर विद्वानों द्वारा स्वीकृत आचार्य अकलंकदेवकृत ग्रन्थों की परम्परा में लघीयस्त्रय अद्वितीय रचना है। पण्डित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने विविध प्रमाणों के आधार पर लघीयस्त्रय को शास्त्रार्थी अकलंकदेव की कृति स्वीकार किया है।'
लघीयस्त्रय इस नाम से स्पष्ट है कि यह छोटे-छोटे तीन प्रकरणों का समूह है । ग्रन्थ का यह नामकरण ग्रन्थकारकृत प्रतीत नहीं होता है । इसका यह नाम सर्वप्रथम आचार्य अनन्तवीर्य की सिद्धिविनिश्चय टीका में मिला है। तत्पश्चात् आचार्य अभयचन्द्रसूरि ने "लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्तिं वक्ष्ये” और “भट्टाकलंकदेवः पोतायमानं लघीयस्त्रयाख्यं प्रारभमाणः " - इन दो सन्दर्भों में लघीयस्त्रय इस नाम का स्पष्ट उल्लेख किया है । ३
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आचार्य उमास्वामी ने “प्रमाणनयैरधिगमः "" इस सूत्र के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नयों के द्वारा किया जाता है। इससे पूर्व आचार्य उमास्वामी ने निक्षेपों को भी तत्त्वज्ञान का हेतु स्वीकार किया है । अतः आचार्य प्रभाचन्द्र और आचार्य अभयचन्द्रसूरि- इन दो टीकाकारों ने अकलंककृत प्रमाण-नय प्रवेश को दो स्वतंत्र प्रकरण माना और उसी में प्रवचन- प्रवेश को समाहित कर लघीयस्त्रय इस संज्ञा से अभिहित किया, जो बाद में इसी नाम से प्रसिद्ध हो गया।
इस प्रकार लघीयस्त्रय प्रमाण, नय और निक्षेप - इन तीन प्रकरणों का समूह है। प्रथम 'प्रमाण प्रवेश' प्रत्यक्ष, प्रमेय, परोक्ष और आगम- इन चार परिच्छेदों में विभाजित है। द्वितीय 'नय प्रवेश' स्वतंत्र एवं एक मात्र नय - परिच्छेद में विभक्त है ।
१. अकलंकग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० ३३
२. (क) अकलंकग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० ३४
(ख) उक्तं च लघीयस्त्रये प्रमाणफलयोः क्रमभावेऽपि तादात्म्यं प्रत्येयम्
- सिद्धिविनिश्चय टीका, प्रथम भाग, पृ० ११७ /२०
३. लघीयस्त्रय, तात्पर्यवृत्ति, पृ० १ ( लघीयस्त्रयादि संग्रहः ) ४. तत्त्वार्थसूत्र, १ / ६
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५. नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः । - तत्त्वार्थसूत्र, १ / ५
६. विशेष ऊहापोह के लिए देखिये- अकलंकग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० ३४-३५