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लघीयस्त्रय और उसका दार्शनिक वैशिष्ट्य
डॉ० कमलेशकुमार जैन* आचार्य अकलंकदेव ईसा की आठवीं शती के शास्त्रार्थी विद्वान् हैं। इन्होंने अपनी तर्कशक्ति के द्वारा अनेक दार्शनिक मतों का सप्रमाण खण्डन करके जैन न्यायशास्त्र की उस परम्परा को पल्लवित एवं पुष्पित किया है, जो आचार्यं समन्तभद्र. एवं आचार्य सिद्धसेन दिवाकर द्वारा स्थापित की गई थी।
मान्यखेट राजधानी' में जन्में एवं लघुहव्व नृपति के ज्येष्ठ पुत्र आचार्य अकलंकदेव अपने वैदुष्य के कारण तत्कालीन विद्वत्समूह में धुरिकीर्तनीय थे। उनके. द्वारा जैन न्याय-शास्त्र की प्रतिष्ठा एवं उसके संरक्षण हेतु जो भी प्रयत्न किया गया वह अद्वितीय है। वे कोरे शास्त्रार्थी विद्वान् नहीं थे, अपितु उन्होंने जैनागम-परम्परा को सुरक्षित रखते हुए अपनी नव-नवोन्मेष तर्कणा-शक्ति के आधार पर पूर्व प्रचलित ज्ञान-मीमांसा को प्रमाण-मीमांसा के ढाँचे में ढालकर जैन सिद्धान्तों के संरक्षण हेतु जो सुरक्षा कवच प्रदान किया है, वह जैन न्यायशास्त्र के इतिहास में दैदीप्यमान सितारे की तरह चिरकाल तक चमकता रहेगा। अकलंक के ग्रन्थ : ___आचार्य अकलंकदेव ने अपने अगाध ज्ञान के नवनीत रूप कुछ बिन्दुओं को संजोकर अनेक ग्रन्थरत्नों का प्रणयन किया है, जिनमें तत्त्वार्थवार्तिक, अष्टशती, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाण संग्रह - ये छह कृतियाँ प्रमुख हैं। इनमें प्रथम दो भाष्य और अन्तिम चार स्वतंत्र हैं। इनके अतिरिक्त अकलंकस्तोत्र, अकलंक प्रतिष्ठा-पाठ और अकलंक प्रायश्चित नामक तीन ग्रन्थ अकलंक के नाम से मिलते हैं, किन्तु इनके शास्त्रार्थी अकलंककृत होने में विद्वानों में मतभेद है। एतद् अतिरिक्त वृहत्त्रय एवं न्यायचूलिका नामक दो अन्य ग्रन्थों का भी उल्लेख मिलता है, किन्तु इन्हें भी विद्वानों ने शास्त्रार्थी अकलंककृत स्वीकार नहीं किया है। माणिकचन्द्र • वरिष्ठ प्राध्यापक-जैन दर्शन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी १. अकलंकग्रन्थत्रय, प्रस्तावना, पृ० ११ २. जीयाच्चिरमकलकब्रह्मा लघुहब्वनृपतिवरतनयः ।
अनवरत्निखिलजननुतविद्यः प्रशस्तजनहृयः ।। -तत्त्वार्थवार्तिक, प्रथम अध्याय, अन्तिम प्रशस्ति पद्य । ३. भट्टाकलंककृत लघीयस्त्रय : एक दार्शनिक विवेचन (टंकित प्रति), पृ०५७ ४. वही, पृ०५७