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अकलंक .और जीव की परिभाषा
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अर्थ लिया जाता था, पर बाद में इसे त्रैकालिक विषयों के संवेदन के व्यापक अर्थ में लिया जाने लगा। इस प्रकार “चेतना” या “चार्वाक” से “अध्यात्मवादी” हो गयी। यह विचार विकास का एक अच्छा उदाहरण है।
जैन लक्षणावली (पेज २७४) में चैतन्य के लक्षण के १-२ संदर्भो की तुलना में उपयोग के २८ संदर्भ दिये गये हैं। सभी में चैतन्य के बाह्य और आभ्यन्तर निमित्तों से होने वाले जीव के परिणामों को उपयोग कहा गया है। इसके अंतर्गत उपयोग रूप भावेंद्रिय भी समाहित हो जाती है। अनेक परिभाषाओं में उप + योग (क्रिया) के रूप में व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी दिया गया है, जिससे इसकी क्रियात्मकता एवं परिणामात्मकता व्यक्त होती है। इससे ज्ञान-दर्शनादि का निकटतम संयोजन ही उपयोग होता है। इसी को अकलंक और पूज्यपाद ने “चैतन्यान्वयी परिणाम” कहा है। इस प्रकार, उपयोग संवेदनशील की अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों को माना जाता है। इस परिभाषा से एक तथ्य तो प्रकट होता ही है कि उपयोग भी अंशतः भौतिक है, क्योंकि यह संदेह जीव में ही होता है। सिद्ध या शुद्ध आत्मा तो उपयोगातीत प्रतीत होती है। यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जीव की परिभाषाओं के रूपों में जितनी विविधता है, उतनी उपयोग के स्वरूपों में नहीं पाई जाती। इससे जीव की परिभाषा की सापेक्ष जटिलता प्रकट होती है। मिश्र. परिभाषा (प्राण + उपयोग) परिभाषा :
जीव की तीसरी कोटि की परिभाषा भौतिक एवं ज्ञानात्मक परिभाषाओं की मिश्रित रूप है। यह जीव की व्यावहारिक परिभाषा है। इस परिभाषा में जहाँ एक ओर जीव को कुंदकुंद रूप रस आदि रहित गुणातीत के रूप में बताते हैं, वहीं वे कर्म संबंध से उसे मूर्तिक (अनिर्दिष्ट संस्थान) भी बताते हैं। जीव के अनेक नामों में ८० प्रतिशत नामः मूर्तिकता के प्रतीक हैं और केवल २० प्रतिशत अमूर्तिकता के। वे चेतना के ३ रूप करते हैं- ज्ञान, कर्म और कर्मफल तथा उसके विस्तार में जीव के मूर्तिक और अमूर्तिक रूप को व्यक्त करते हैं। जीव की इस मिश्र परिभाषा में किंचित् विरोध सा लगता है। इसलिये अनेकांत पर आधारित व्यवहार-निश्चयवाद या द्रव्य- भाववाद का आश्रय लेना स्वाभाविक ही है। मूर्तिकता संबंधी सारे लक्षण व्यवहारी या सामान्य जनों के अनुभव में आते हैं। उनमें से अधिकांश वैज्ञानिकतः प्रयोग समर्थित भी हैं। कुंदकुंद का कथन है कि व्यावहारिक लक्षण अनीव कर्मों के कारण है, जिन्हें हमने जीव के ही लक्षण मान लिये हैं इसलिए व्यवहार भाषा के समान इनके बिना सामान्य जन सूक्ष्म तत्त्व को (शुद्ध आत्मा) कैसे समझेगा? लेकिन जहां कुंदकुंद एक अच्छे वैज्ञानिक की