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अकलंक और जीव की परिभाषा
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श्वासोच्छ्वास समाहित होते हैं। ये सभी पौद्गलिक हैं तथा आयु और नामकर्म के रूप हैं। फलतः जीव की यह प्रारम्भिक परिभाषा भौतिक दृष्टि को निरूपित करती है। यह आचारांग, सूत्रकृत, स्थानांग, प्रज्ञापना, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, धवला-१ तथा कुंदकुंद के प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय में पाई जाती है। आजीवक संप्रदाय भी जीव को परमाणुमय, वृत्ताकार या अष्टफलकीय आकृति वाला एवं नीले रंग का मानता था। धवला, भगवती एवं पंचास्तिकाय में जीव के १७-२३ नाम बताये गये हैं, जिनमें अधिकांश जीव के भौतिक स्वरूप को परिलक्षित करते हैं। श्वेताम्बर आगमों में जन्तु, जन्म, शरीरी आदि आते हैं, जो धवला और कुंदकुंद के नामों में नहीं हैं। इससे प्रकट होता है कि श्वेताम्बरों की तुलना में दिगम्बर अधिक अमूर्त आत्मवादी हैं। यह आत्मवाद भौतिकवाद का उत्तरवर्ती विकसित रूप लगता है। भाव प्राणों की धारणा से जीव को लक्षणों में कुछ व्यापकता आई है।
- भौतिक परिभाषाओं में उक्त के अतिरिक्त जीव की एक भावात्मक या मनोभावात्मक परिभाषा भी है जिसमें कर्म-जन्य ४ भाव- औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा औदयिक एवं कर्म-निरपेक्ष पाँचवाँ पारिणामिक भाव- कुल ५ भाग समाहित हैं। यद्यपि अनुयोगद्वारों में ६ नामों के अंतर्गत ६ भाव बताए हैं, पर वहां उन्हें जीव का असाधारण लक्षण नहीं कहा है। सम्भवतः यह उमास्वामी का योगदान है कि. उन्होंने जीव को मनोभावात्मक विशेषताओं से भी लक्षित किया। भाव शब्द के अनेक. अर्थ होते हैं- पर्याय, परिणाम, वर्तमान, स्थिति आदि। पर जीव लक्षण के संबंध में चित्र विकार का मनोवैज्ञानिक अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है। फलतः जीव वह है जिसमें कर्म एवं कर्मोदय के कारण अनेक प्रकार के मनोभाव भी पाए जाते हैं। यह मनोभावी परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों के अतिरिक्त धवला तथा कुंदकुंद के कुछ ग्रंथों में पाई जाती है। “उपयोग जीव का लक्षण है" की प्रश्नावली में यह बताया गया है कि भौतिक लक्षण अनात्मभूत या सहकारी लक्षण हैं, प्रमुख या आत्मभूत लक्षण नहीं हैं। इस भौतिक परिभाषा में जीव के भौतिक/भावात्मक तत्त्व (शरीर, योनि, अवगाहन आदि) तथा क्रियाएँ (योग) एवं कर्म-जन्य मनोभाव समाहित होते हैं। फलतः यह परिभाषा मात्र भाव प्राणी आत्मा पर लागू नहीं होती।
अध्यात्मवादी उपयोगात्मक परिभाषा : " जीव की दूसरी परिभाषा संवदेनशीलता से संबंधित है। सम्भवतः आचार्यों की यह मान्यता है कि उपर्युक्त भौतिक एवं भावात्मक परिभाषा जीव की मौलिक संवदेनशीलता के कारण ही है। इसको शास्त्रों में अनेक रूपों में व्यक्त किया गया है।