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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
श्वासोच्छ्वास, आहार, प्रवीचार, भाषा, जन्म-मरण;
आयु
२. ज्ञानात्मक रूप दर्शन, ज्ञान, उपयोग । इन्द्रिय, उपयोग, संज्ञा/मन ३. संवेग/ मनोभागी रूप लेश्या, दृष्टि, संज्ञा कषाय , लेश्या, सम्यक्त्व ४. क्रियात्मक रूप योग
योग, संयम. . . . ५. संवेदनात्मक/अनुभूति ----
सुख-दुख, शीत-उष्ण, वेदना
आदि। इन रूपों को “जीव पर्याय/परिणाम” के रूप में कहा गया है। स्पष्ट है कि ये एकीकृत रूप “जीव” (सदेह आत्मा) के ही हो सकते हैं। प्रारम्भ में मार्गणा स्थानों को भी “जीवस्थान” ही कहा जाता था; उन्हें भी इन ५ रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है। इस प्रकार, प्रारम्भ में जीव का स्वरूप पंच रूप था। सभी रूपों की समकक्ष मान्यता रही है। उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रायः इन सभी. (शरीरादि, मनोभाव, उपयोग, योग एवं वेदना) रूपों के माध्यम से जीव का ही वर्णन किया है लेकिन अब जीववाद आत्मवाद में परिवर्द्धित हुआ, तब इनमें से उपयोगात्मक परिभाषा मुख्य हो गई और अन्य परिभाषाएँ द्वितीयक कोटि में चली गई। आत्मा (शुभ या शुद्ध ?) स्वामी हो गया और जीव बेचारा दास हो गया। .
__ आगमोत्तर काल के शास्त्रों में प्राप्त जीव की परिभाषाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:
१. जीव शब्द पर आधारित भौतिक परिभाषाएँ- प्राण, आयु आदि।
२. जीव के ज्ञानात्मक/आध्यात्मिक स्वरूप पर आधारित परिभाषाएँ- ज्ञान, दर्शन, सुख-दुख, वीर्य, उपयोग।
३. जीव के भौतिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप पर आधारित परिभाषाएँ या मिश्र परिभाषाएँ- प्राण और उपयोग। भौतिक और मनोभौतिक परिभाषा :
उपर्युक्त ३ प्रकार की परिभाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जीव की प्रारम्भिक परिभाषा प्राणधारण (द्रव्य प्राण) और आयुष्य ग्रहण से संबंधित रही होगी। प्राण शब्द का सामान्य अर्थ श्वासोच्छ्वास होता है, पर जैनों का अर्थ अन्य तंत्रों की तुलना में व्यापक है। उसके अंतर्गत बल, इन्द्रिय, आयु और