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जैन-न्याय को आचार्य अंकलंकदेव का अवदान
आत्मवाद एवं उससे सहचरित अनेक सिद्धान्तों की बौद्धिक कल्पना की, जिससे वह न केवल हिंसात्मक क्रियाकाण्डों से ही मुक्ति पा सका, अपितु अध्यात्मवाद के साये में उसने जीवन को अनन्त सुखमय बनाने का महान् आशावादी उद्देश्य और लक्ष्य भी पाया। अपने बुद्धिवाद से उसने सामान्य-अर्थी सतत-विहारी आत्मा शब्द का ही अमूर्तीकरण नहीं किया, अपितु अनेक भौतिक प्रक्रमों एवं वस्तुओं (प्राण, इन्द्रिय, मन आदि) का भी अध्यात्मीकरण किया। इस प्रक्रिया में जीवन की घटनाओं की व्याख्या सामान्य जन के लिए दुःखबोध हो गई। जल, थल व नभ आदि के अध्यात्मीकरण ने ऋषि-मुनियों को जो भी प्रतिष्ठा दिलाई हो, पर सामान्य जन तो परेशानी में ही पड़ा। वह आत्मवादी बने या जीववादी ? आत्मवादी बनने में अनन्त सुख एवं आयु थी, जीववादी बनने में सान्त सुख और सीमित आयु थी। एक ओर कल्पना जगत् का आनन्द था, दूसरी ओर व्यावहारिक जगत् की आपदायें थीं। श्रमण-संस्कृति एवं उपनिषदों के उपदेष्टा साधु जीवन की श्रेष्ठता की चर्चा कर उसे ही उत्सर्ग मार्ग बताते थे, अपवादी तो बेचारा “जीव” माना गया। बहुसंख्यकों की इतनी अप्रतिष्ठा धर्मज्ञ ही कर सकते थे। यह स्थिति अब तक बनी हुई है। इससे आत्मवाद मौलिक सिद्धान्त हो गया। जैनों में तो आत्मप्रवाद नाम से एक स्वतंत्र पूर्वागम ही माना जाता है, यद्यपि इसके नाम से प्रकट है कि यह एक विषयवादी प्रकरण रहा हैं। इसीलिये कबीर को भी अपने समय में यह कहना पड़ा कि मैं बाजार में भाषण दे रहा हूँ पर श्रोतागण नदारद हैं। क्यों? अब मानवबुद्धि इसका उत्तर दे सकती है। अध्यात्मवादी मान्यताओं की कोटि व्यावहारिक जगत् की विरोधी दिशा में जाती है। इनके बीच समन्वय कम दिखता है। अतः सामान्य जन “जीव” बने रहने में, साधु बनने की अपेक्षा, अधिक
आनन्द मानता है। वह सोचता है कि सांसारिक कष्ट तो हलुए में किशमिश के समान हैं, जो उसके आनन्द को ही बढ़ाते हैं। सत्यभक्त ने बताया है कि संसार में शारीरिक
और मानसिक दुःखों की संख्या १०८ है और मूलतः ८ प्रकार के सुखों (जीवन, विद्या, प्रेम, विषय, महत्वाकांक्षा आदि) के उपभेद ७२ हैं। लेकिन संख्या कुछ भी हो, परिमाण की दृष्टि से संसार में सुख की मात्रा दुःख से कई गुनी अधिक है। नहीं तो, (जीवणं पियं) क्यों मानता? फलतः संसार की दुखमयता की धारणा तर्कसंगत विचार चाहती है। यह नकारात्मक प्रवृत्ति की, निवृत्ति मार्ग की, निषेधात्मक आचारवाद की प्रतीक है। यदि हम संसार को सान्त सुखमय मानें, तो हमारी प्रवृत्ति सकारात्मक एवं सुख को बढ़ाने की होगी। इस मान्यता से जैनों के मूल उद्देश्य का भी कोई विरोध नहीं होगा, क्योंकि अनन्त सुख सान्त सुख का बहिर्वेशन मात्र है :