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________________ अकलंक और जीव की परिभाषा जीव (स्थूल) जीव की परिभाषा के प्रारम्भिक रूप : आत्मा (सूक्ष्म) जैनदर्शन में जीव शब्द की ही नहीं, अपितु जीव की भी दुर्गति है। उसे जिस घृणा और भर्त्सना से वर्णित किया गया है, उसे देखकर जहां आचार्यों की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का आभास होता है, वहीं उनकी अतिशयोक्ति अलंकार एवं वीभत्स रस में प्रवीणता भी प्रकट होती है । ये वर्णन आज के मनोवैज्ञानिक प्रचार तंत्र को भी मात करते हैं। यह वर्णन कभी भी सामान्य जन को रास नहीं आया इसीलिए मोक्ष मार्ग के पथिकों की संख्या कभी नहीं बढ़ पाई। भाषिक दृष्टि से प्राप्त जैनों की सबसे प्राचीन पुस्तक- आचारांग में जीव के वाचक ४ शब्द दिये हैं- प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व। भगवतीसूत्र और शीलांकाचार्य ने इनके जो अर्थ किए हैं, वे सारिणी एक में दिए गये हैं । भगवती ने इनमें २/१ में २ शब्द और जोड़े हैं और बाद में जीव के २३ पर्यायवाची बताये हैं । इनमें “आत्मा” भी एक पर्यायवाची है। इसका अर्थ निरंतर संसार - भ्रमण-स्वभावी बताया गया है (अभयदेव सूरि)। फलतः जीव का प्रारम्भिक अर्थ तो संसारी जीव ही रहा है। अन्य दर्शनों से “आत्मा” शब्द के समाहरण पर भी उसका प्रारम्भिक जैन अर्थ संसारी जीव ही रहा है, उसका अन्य अर्थ (शुद्ध जीव, जीघ - कर्म आदि) उत्तरवर्ती विकास है। सारिणी १ : जीव - वाचक प्राचीन शब्दों के अर्थ भगवती शब्द १. प्राण २. भूत ३. जीव ४. सत्त्व दस प्राणों से युक्त त्रैकालिक अस्तित्व ५. विज्ञ ६. वेद ७. आत्मा आयुष्यकर्म एवं प्राणयुक्त कर्म-संबंध से विषादी 99 शीलांक २ - ४ इन्द्रियं जीव ( स ) एकेंद्रिय वनस्पति (स्थावर ) पंचेन्द्रिय (त्रस) एकेंद्रिय पृथ्वी आदि चार (स्थावर ) खाद्य-रसों का ज्ञाता सुख-दुःखसंवेदी सतत संसार- भ्रमणी चतुर्वेदी का विचार है कि मानव के प्रारम्भिक वैचारिक विकास के प्रथम चरण में वह क्रियाकाण्डी एवं सामान्य बुद्धिवादी था । वह इहलौकिक जीवन को ही परमार्थ मानता था। वह वस्तुतः चार्वाकं था । अपने विकास के द्वितीय चरण में वह चिंतनशील, बुद्धिवादी, कल्पनाप्रवीण एवं प्रतिभाज्ञानी बना। इस चरण में उसने
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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