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________________ 98 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान नहीं हैं। राजवार्तिक में तत्त्वार्थसूत्र के विषयों के अनुसार सात तत्त्वों का भाष्य रूप में तार्किक एवं अनेकान्ती विवरण है। मनोरंजन की बात यह है कि उमास्वामी के मूलसूत्रों में “आत्मा” शब्द का प्रयोग नहीं है, वहां प्रत्येक स्थल पर “जीव” शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। यह भी ११ स्थलों पर आया है। इनमें केवल २-३ स्थानों पर ही जीव की परिभाषा दी गई है। इससे अनेक बातें ध्वनित होती हैं। प्रथम, उमास्वामी के युग तक जैनों में आत्मा शब्द लोकप्रिय नहीं हो पाया होगा। इस शब्द की स्थिति ठीक उसी प्रकार की लगती है जैसे उत्तरवर्ती काल में “अस्तिकाय" के लिए "द्रव्य" शब्द का समाहार हुआ या “पर्याय" के लिए “विशेष" शब्द का प्रचलन हुआ। श्वेताम्बर आगमों में भी आत्मा शब्द की तुलना में जीव शब्द का ही अधिक प्रयोग है लेकिन पूज्यपाद और अकलंक के समान टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में जीव की व्याख्या के समय आत्मा शब्द का प्रायः प्रयोग किया है। लगता है, इन्होंने दोनों शब्दों को, समानार्थी मान लिया। पर यह संग्रहनयी दृष्टि ही हो सकती है, समभिरूढ़नयी दृष्टि नहीं। इस आधार पर इनके विशिष्ट अर्थ होते है : . आत्मा+ शरीर = जीव, सशरीरी प्राणी, देहबद्ध चेतनतत्त्व जीव - शरीर = आत्मा, देहमुक्त चेतनतत्त्व।। इससे लगता है कि टीकाकारों के युग में कम से कम दक्षिण में “आत्मा” शब्द प्रचलन में था। फलतः जैसे दार्शनिक शब्दावली की समकक्षता के स्थापन की प्रक्रिया में प्रत्यक्ष को इंद्रिय (एवं अनिद्रिय) के रूप में भी माना गया, परमाणु को व्यवहार रूप में भी माना गया, उसी प्रकार, अन्य दर्शनों के साथ तुलना की दृष्टि से जीक के लिए “आत्मा” से अभिहित करने की प्रक्रिया प्रारंभ हुईं। इस जीव और आत्मा शब्द के प्रारम्भिक समाहार के प्रकरण से यह भी अनुमान लगता है कि उमास्वामी का कार्यक्षेत्र दक्षिण न होकर उत्तर (पटना) में ही होगा। अन्य तंत्रों के समकक्ष- से लगने वाले पारिभाषिक शब्दों के समाहरण से जहाँ जैनों की समन्वयवादिता प्रकट होती है, वहीं उनकी ज्ञान के क्षेत्र में पृथकतावादी वृत्ति के प्रति उदारता का भी संकेत देती है। जीव शब्द के उत्तरवर्तीकाल में आत्मा शब्द के उपयोग और उसकी परिभाषा से यह धारणा भी खण्डित होती है कि धर्मज्ञ “सूक्ष्म” से “स्थूल” की ओर बढ़ते हैं। वे जीव से आत्मा की ओर बढ़े। यहाँ स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति ही दिखती है। यह वैज्ञानिक प्रवृत्ति है। संभवतः ऐसे ही प्रकरणों के कारण धर्म को “विज्ञान” मानने की परंपरा का सूत्रपात हुआ होगा।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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