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अकलंक और जीव की परिभाषा
नय और निक्षेपों की विषद चर्चा है। यह ऐसी उच्चस्तरीय एवं तर्कशास्त्रीय चर्चा है कि इसी के कारण “प्रमाणमकलंकस्य " की उक्ति प्रसिद्ध हुई है । यह हर्ष की बात है किं इनके सभी मौलिक ग्रंथ सटिप्पण प्रकाशित हो चुके हैं। इनके टीकाग्रंथों में (१) समंतभद्र की आप्तमीमांसा पर अष्टशती - ८०० श्लोक प्रमाण टीका एवं (२) उमा स्वामी के तत्त्वार्थसूत्र पर राजवार्तिक टीका समाहित हैं। ये दोनों टीकाएँ क्या, भाष्य ही हैं। इनमें अकलंक की तर्कशैली, प्रश्नोत्तरशैली और अनेकांतवाद - आधारित निरूपण - शैली मनोहारी है । वस्तुतः शास्त्रार्थ और कृतियों के कारण ही जैनदर्शन तो क्या, भारतीय दर्शन के इतिहास में अकलंक को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। जैनन्याय के तो वे जनन ही कहलाते हैं। विचारों के विकास की दृष्टि से, ऐसा प्रतीत होता है कि अकलंक ने टीका ग्रंथ पहले लिखे होंगे और मौलिक ग्रंथ बाद में । उदाहरणार्थ, राजवार्तिक में प्रत्यक्ष के दो भेद नहीं हैं, वे लघीयस्त्रय में हैं । हम यहां केवल राजवार्तिक में वर्णित जीव की परिभाषा पर विचार करेंगे।
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राजवार्तिक :
राजवार्तिक 'उमास्वामी के बहुमान्य तत्त्वार्थसूत्र की दूसरी टीका है। इसमें गद्यात्मक रूप में सर्वार्थसिद्धि के अधिकांश वाक्यों को तथा स्वतंत्र रूप में नये रचे वार्तिक (लघुसूत्र ) के रूप में प्रस्तुत कर उनकी व्याख्या की है। इस वार्तिक की रचना ‘संभवतः नैयायिक विद्वान् उद्योतकर के न्यायवार्तिक का अनुकरण है । चूंकि तत्त्वार्थसूत्र में अनेक प्रकरणों में आगमिक परम्परा अनुमोदित हुई है, ( कर्मबन्ध के पाँच हेतु, प्रत्यक्ष के दो भेद, अनुयोगद्वार आदि), अतः अकलंक ने भी अपनी टीका में प्रायः . उसका अनुसरण किया है। दीक्षित की यह अभ्युक्ति समुचित नहीं लगती, कि इस ग्रंथ में अष्टशती की तुलना में मौलिकता नहीं दिखती क्योंकि अनेक जैन और जैनेतर विद्वानों ने इस ग्रंथ को भी जैनधर्म का तार्किक भाषा में प्रस्तुत सार एवं अनेक नये विषयों की उत्थापना का स्रोत बताया है। आचार्य हरिभद्र ने तो मुख्यतः अनेकान्तवाद को ही पल्लवित किया, पर अकलंक ने जैन प्रमाणवाद को भी पल्लवित किया जो अब तक प्रसप्त अवस्था में था। उन्होंने विभिन्न तन्त्रों के सिद्धान्तों को मूल्यांकित कर जैन मान्यताओं की तर्कसंगत वरीयता पुष्ट की। फिर भी, विद्यानंद की तुलना में अपने मूल्यांकनों में अकलंक किंचित् दुर्बल लगते हैं, क्योंकि उनकी भाषा में सौष्ठव एवं मृदुता है। दीक्षित के विपर्यास में, पंडित जी के समान विद्वानों ने राजवार्तिकं को अकलंक की प्रतिभा और नवीनता की प्रतीक बताया है और उसे सर्वार्थसिद्धि-आधारित होने पर भी मौलिक - जैसा बताया है। दिगम्बर विद्वान् भी दीक्षित के मत से सहमत