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________________ जैन - न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान उपर्युक्त विवेचन से यही सिद्ध होता है कि प्रमाण सत्यता की कसौटी पर परखा हुआ ज्ञान है। प्रमाण ज्ञानमात्र नहीं है, अपितु परीक्षित ज्ञान है, सत्यापित ज्ञान है। अकलंक देव ने प्रमाण का एक लक्षण दिया- “ अनधिगतार्थग्राही” और माणिक्यनन्दि ने भी प्रमाण का एक लक्षण दिया- “स्वापूर्वार्थव्यवसायी”। अकलंक के अनुसार, अनिधगत का अर्थ है ऐसा ज्ञान प्रमाण होगा जो प्रमाणान्तर से अनिर्णित अर्थ का निर्णय करे। इसी प्रकार माणिक्यनन्दि के “स्व” अर्थात् अपने और “अपूर्वार्थ” अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण से नहीं जाना गया है, ऐसे पदार्थ के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहा है। यदि प्रमाण के ये “अपूर्व” और “अनधिगत” विशेषण मान लिये जाते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि प्रमाण सत्यापित ज्ञान नहीं प्रत्युत ऐसा ज्ञान है जिसको पहले किसी प्रमाण से नहीं जाना गया है। अतः प्रमाण के लक्षण परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं । 94 इस प्रकार उमास्वामी, अकलंक, सिद्धसेन, माणिक्यनंदी आदि दार्शनिकों के प्रमाण के लक्षण के विवेचन से स्पष्ट होता है किं इनके द्वारा प्रमाण के लक्षण कथन में सत्यता की विविध कसौटियों को माना गया। साथ ही, पाश्चात्य - दर्शन की सत्यता की विविध कसौटियों से इन दार्शनिकों के प्रमाण लक्षण की तुलना करने पर एक नई बात सामने आई कि जहाँ पाश्चात्य - दार्शनिकों द्वारा सत्यता की इन विविध कसौटियों को परस्पर विरोधी माना गया है और किसी एक कसौटी को ही अंतिम रूप से चुना गया है, वहीं इन दार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण के रूप में एक साथ ही सत्यता ने ये विविध कसौटियां स्वीकार की हैं। प्रश्न उठता है कि इन दार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण में एक साथ सत्यता की ये विविध कसौटियां क्यों मानी गयीं, इसका उत्तर खोजा जा सकता है जैनदर्शन की विशिष्ट तत्वमीमांसा में, जिसका अनिवार्य सार निकलता है उनकी अनेकान्तवादी दृष्टि, जो इनके सम्पूर्ण दर्शन में व्याप्त है। इस अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के अनुसार वस्तु में विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनन्तधर्म रह सकते हैं क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वस्तु में जितने विरोधी धर्म हैं सब सत्य हैं, क्योंकि वस्तु-विषयक सम्पूर्ण यथार्थता का ज्ञान उन विरोधी धर्मों के समन्वय में निहित है । अतः वस्तु के विषय में सभी मत उपयोगी हैं, क्योंकि वे वस्तु के विविध पहलुओं का कथन करते हैं और वस्तु के चिषय में सम्पूर्ण सत्य को जानने में सहायक होते हैं । वस्तुओं के विषय में जो नाना मत-मतान्तर हैं उनका कारण वस्तु का अनेक धर्मात्मकस्वरूप है। १. पंचास्तिकाय गाथा--८
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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