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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
करना होता है। यह कथन कि 'पत्तियां हरी हैं' तथ्य के साथ संवाद रखता है, अतः पुनरुक्ति मात्र है, क्योंकि तथ्य स्वयं ज्ञात विषयों में हुआ करते हैं। तथ्य तथा सत्य एक ही बात है। अतः मात्र संवादित्व से प्रत्येक ज्ञान के सत्य की सिद्धि नहीं की जा सकती। एक तो ज्ञान का वस्तुतथ्य से संवाद स्थापित करना ही असम्भव है, फिर यही वस्तुतथ्य की हमारी धारणा गलत है तो संवाद भी गलत होगा, जिसके परिणामस्वरूप मिथ्याज्ञान भी सत्यसिद्ध हो जायेगा। ___कुछ जैन-दार्शनिकों ने प्रमाण के तीन लक्षण बताये हैं- अबाधित्व, अव्यभिचारितत्व
और संगति। जैसा कि पूर्वविवेचन से स्पष्ट हो चुका है कि उस ज्ञान को प्रमाण मानेंगे. जिस ज्ञान की शेष ज्ञान से संगति हो। इसका आशय यह है कि कुछ दार्शनिकों ने सत्यता की कसौटी संगति मानी है। पाश्चात्य-दर्शन में भी आदर्शवादी दार्शनिक, जिनमें हेगेल, ग्रीन, बोसांके और ब्रेडले प्रमुख हैं, ने संगति को सत्यता की कसौटी माना है इनके अनुसार हमारे ज्ञान की सत्यता शेष ज्ञान के साथ संगति में निहित है। यदि हमारा वर्तमान ज्ञान पूर्वज्ञान के विपरीत है तो हो सकता है कि हमारा वर्तमान ज्ञान गलत हो। यद्यपि कभी-कभी ऐसा भी होता है कि नवीन खोजों एवं अनुसंधानों के द्वारा हमारा पूर्वज्ञान गलत सिद्ध कर दिया जाता है, और नवीन ज्ञान को सत्य। किन्तु यहां पर स्पष्ट है कि नवीन ज्ञान और पूर्वज्ञान में संगति स्थापित कर दी गयी
और दोनों में विरोध समाप्त कर दिया गया। इसका तात्पर्य है कि किसी भी स्थिति में बाधित ज्ञान सत्य नहीं माना जा सकता। ज्ञान में संगति, ज्ञान की सत्यता के विश्वास के लिए आवश्यक है। ज्ञातव्य है कि सत्यता की यह कसौटी अकलंक व माणिक्य नंदी के 'अपूर्व' विशेषण की विरोधी है।
सत्यता की इस कसौटी में भी कई कठिनाइयां हैं। तर्कशास्त्र में अबाधिता (Non-Contradiction) विश्लेषणात्मक परामर्शों की सत्यतका की कसौटी है विश्लेषणात्मक परामर्शों का अर्थ है- ऐसे परामर्श जो कोई नवीन ज्ञान तो नहीं देते हैं, परन्तु इन परामर्शों में विधेय उद्देश्य का स्पष्टीकरण मात्र करते हैं। विश्लेषणात्मक परामर्श को एक उदाहरण से स्पष्ट कर सकते हैं। जैसे- त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोणों के योग के बराबर होता है, इस विश्लेषणात्मक परामर्श में उद्देश्य त्रिभुज के तीनों कोणों के योग से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विधेय दो समकोण के योग के बराबर होगा किन्तु ज्ञान विधेय द्वारा उद्देश्य के स्पष्टीकरण तक सीमित नहीं है। अतः ज्ञान को विश्लेषणात्मक परामर्शों तक सीमित नहीं किया जा सकता है,