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आचार्य अकलंक की प्रमाण-मीमांसा व सत्यता की कसौटी
पाश्चात्य-दर्शन में मुख्यतः सत्यता की तीन कसौटियां हैं- संवादिता (या अनुकूलता) का सिद्धान्त (Correspondence Theory), अबाधिता (अथवा सामंजस्य) का सिद्धान्त (Coherence Theory) और अर्थक्रियावादी (या उपयोगितावादी) सिद्धान्त (Pragmatic Theory)।'
सत्य के संवादिता सिद्धान्त के अनुसार सत्य वह है जो यथार्थ से मेल खाये, जो वास्तविकता के अनुरूप हो। इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार अनुकूलता को सत्य का लक्षण ही नहीं वरन् सत्यता की कसौटी भी माना गया है। _ जैनदर्शन सत्यता की इस कसौटी से वहाँ सहमत प्रतीत होता है, जहाँ प्रमाण का लक्षण सम्यक्त्व (उमास्वाति) और अविसंवादित्व (अकलंक) माना गया है। सम्यक्त्व को परिभाषित करते हुए उमास्वाति ने कहा है कि सम्यक्ज्ञान वह है जो पदार्थ को न्यूनतारहित एवं अधिकतारहित ज्यों का त्यों जानता है। इसी प्रकार अविसंवादित्व का लक्षण करते हुए अकलंक कहते हैं कि-वह ज्ञान जिसका तथ्य या यथार्थता से विसंवाद न हो, ऐसा ज्ञान जिसमें बाह्यार्थ की यथावत् उपलब्धि हो। बायार्थ की यथावत् प्राप्ति या अप्राप्ति पर अविसंवाद और विसंवाद निर्भर है। अतः इससे यहां निष्कर्ष निकलता है कि वह ही ज्ञान सत्य (या दूसरे शब्दों में प्रमाण) हो सकता है जो सम्यक् हो . (उमास्वाति तथा हेमचन्द्र के अनुसार) तथा अविसंवादी हो (अकलंक के अनुसार)
और वस्तु का यथातथ्य चित्रण अथवा यथार्थता की यथावत् ज्ञान में उपस्थिति कराता हो, यही सत्यता की कसौटी है। .. सत्य की इस कसौटी को यदि मान लिया जाये, तो इसमें कुछ कठिनाइयां सामने
आती हैं, जैसा कि इस कसौटी को मानने वाले पाश्चात्य दार्शनिकों के सामने भी आती रही हैं। ज्ञान की यथार्थता से अनुरूपता उस तरह नहीं मापी जा सकती, जिस तरह कोई.भौतिक वस्तु मापी जाती है। इसके अतिरिक्त, कोई किसी तथ्य का संवादी हैयह कैसे कहा जा सकता है? ज्ञान तथ्य के अनुकूल है- यह कहना तभी सार्थक है, जबकि हमें उस तथ्य का, उस ज्ञान से, कोई स्वतंत्र पूर्वज्ञान हो चुका हो, लेकिन प्रश्न उठता है- जिसका पूर्वज्ञान हो चुका हो उसके फिर से ज्ञान होने का क्या औचित्य है? यहाँ वस्तुतथ्य का पूर्वज्ञान होना प्रमाण के अनधिगतार्थग्राही लक्षण के विरुद्ध है, क्योंकि इस लक्षण के अनुसार प्रमाण का कार्य प्रमाणान्तर से अनिर्णीत अर्थ का निर्णय
9. Dictionary of Philosophy, Ed. Dogo Bert D. Runes, Philosophical library, New
york. १६४२, page ३२१-२२.