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________________ 90 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान आवश्यक हैं अकलंक के अनुसार, अविसंवादी ज्ञान का अर्थ है ऐसा ज्ञान जिसमें बाह्य वस्तु जैसी है वैसी ही ज्ञान में प्रकट हो जाये। इन शब्दों में बाह्य वस्तु का यथावत् ज्ञान में प्रकटीकरण ही अविसंवाद है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अकलंक अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण मानते हुए उसे अनधिगतार्थग्राही भी कहते हैं।' प्रमाण के इस नवीन लक्षण का अभिप्राय है- ऐसा ज्ञान प्रमाण होगा जिसका किसी दूसरे प्रमाण से निर्णय न किया गया हो अर्थात् प्रमाण का विषय 'अपूर्व' हो। __माणिक्यनन्दि अकलंकदेव के प्रमाण के उपर्युक्त नवीन लक्षण का समर्थन करते प्रतीत होते हैं जब वे प्रमाण के लक्षण में 'अपूर्व' विशेषण देते हैं। साथ ही कहते हैं कि 'स्व' अर्थात् अपने आपके और 'अपूर्वार्थ' अर्थात् जिसे किसी अन्य प्रमाण से नहीं जाना जा सकता, ऐसे पदार्थ के निश्चय करने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।२।। प्रमाण की उक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के यह स्पष्ट होता है कि जैन , दार्शनिकों द्वारा प्रमाण के लक्षण के रूप में विविध पदों का प्रयोग किया गया है, जैसेसम्यक्, अविसंवादी, अनधिगतार्थग्राही, स्वपूर्वार्थव्यवसायी, स्वपराभासि और बाधविवर्जित। यहाँ स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है कि प्रमाण के विषय में यह मतभेद क्यों है? वस्तुतः शब्दों की इन विभिन्नताओं के पीछे सत्यता की कई कसौटियां छिपी हैं। प्रमाण की सत्यता की कसौटी : __ पूर्व विवेचन से स्पष्ट हो चुका है कि जैन-दार्शनिकों के अनुसार (जिनमें अकलंक भी सम्मिलित हैं) ज्ञान प्रमाण है, लेकिन चूंकि सभी ज्ञान प्रमाण नहीं माने जा सकते, इसलिए यहाँ ज्ञान के 'सत्यापन' का प्रश्न उठता है। सत्यापित ज्ञान ही प्रमाण है। ज्ञान की परीक्षा किस आधार पर की जा सकती है, 'सत्य' का क्या अर्थ है, इसी की व्याख्या के लिए जैन-दार्शनिकों द्वारा सम्यक्, अविसंवादी, स्वपरावभासिक, स्वपूर्वार्थव्यवसायी, अनधिगतार्थग्राही और बाधविवर्जित आदि विविध पदों का प्रयोग किया गया है। इन मापदण्डों द्वारा ही उन्होंने 'सत्य' के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। सत्यता के इन मापदण्डों में आपस में कोई संगति प्रतीत नहीं होती है। यह बात यदि पाश्चात्य-दर्शन में सत्य के स्वरूप और कसौटियों के अध्ययन के सन्दर्भ में जैन-दर्शन की सत्यता के स्वरूप और कसौटियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो अधिक स्पष्ट होगी। १. वही, पृ० १७५ २. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञान प्रमाणम्। परीक्षामूख १.१
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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