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आचार्य अकलंक की प्रमाण-मीमांसा व सत्यता की कसौटी
लघीयस्त्रय की विवृत्ति में इसी ज्ञान की प्रमाणता का समर्थन करते हुए अकलंक देव ने लिखा है कि आत्मा को प्रमिति-क्रिया या स्वार्थविनिश्चय में, जिसकी अपेक्षा होती है, वही प्रमाण है और वही साधकतम रूप से अपेक्षणीय ज्ञान है।' प्रमाण संप्रत्यय के विकास में अकलंक का योगदान -
प्रमाण संप्रत्यय के विकास में अकलंक के योगदान को देखने के लिए प्रमाण-विषयक ऐतिहासिक विवेचनों को देखना होगा। उमास्वाति ने सर्वप्रथम, ज्ञान
और प्रमाण का स्पष्ट निरूपण किया था। अतः उमास्वाति की प्रमाण-परिभाषा का विश्लेषण आवश्यक है। इनके मत में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपयर्यज्ञान
और केवलज्ञान, ज्ञान के प्रमाण के पांच प्रकार हैं। उमास्वाति के ही मत में सम्यक्-ज्ञान ही प्रमाण है जिसका अर्थ है जो प्रशस्त हो, अव्यभिचारी हो और संगत हो।
. . ___ उमास्वाति के पश्चात्वर्ती विचारकों ने प्रमाण के लक्षण में 'ज्ञान' को तो स्थान दिया किन्तु उस ज्ञान के 'सम्यक्' विशेषण के स्थान पर अन्य विशेषणों का प्रयोग किया। सिद्धसेन ने “स्वपरावभासि” व “बाधविवर्जित"५ ज्ञान को प्रमाण कहा। . अकलंकदेव ने प्रमाण संप्रत्यय का विकास करते हुए एक नया लक्षण दिया . “अविसंवादी” । उनके अनुसार अविसंवादी ज्ञान प्रमाण है, क्योंकि स्वसंवेदन तो ज्ञान सामान्य का लक्षण है। प्रमाणता और अप्रमाणता का निर्णय अविसंवाद और विसंवाद के आधार पर करना चाहिए। अकलंक द्वारा प्रमाण के इस नवीन लक्षण का औचित्य यही है कि कोई भी ज्ञान एकान्त रूप से प्रमाण नहीं होता। चूंकि इन्द्रियां सीमित शक्तिं वाली होती हैं, इसलिए इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान सदैव सत्य नहीं होता। रेल से बाहर दिखाई देने वाले वृक्ष, मकान, पहाड़ आदि के अस्तित्व के विषय में कोई विसंवाद न होने के कारण उन चीजों का ज्ञान अविसंवादी होने से प्रमाण ही है। अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण मान लेने पर अविसंवादी ज्ञान के अर्थ का स्पष्टीकरण १. न्यायकुमुदचन्द्र, (अकलंक की लघीयस्त्रय पर टीका) प्रभाचन्द्र, सं० पं० महेन्दकुमार, मानिकचन्द्र दिगम्बर जैन
सीरीज, बम्बई १६३८, १.३ २. मतिश्रुता ऽवधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वाति, सं० पं० सुखलाल संघवी, भारत जैन महामण्डल,
वर्धा, १६३२, १.६ ३ तत्प्रमाणे। वही १.१० ४. प्रमाणं स्वपरावभासिज्ञानं बाधविवर्जितम्, न्यायावतार वार्तिक, सिद्धसेन, सिंघी जैन ग्रंथमाला, भारतीय विद्याभवन,
बम्बई, १६४६, १२ ५. न्यायावतार, १.२ . ६. अष्टसहस्री (अकलंक की अष्टशती पर टीका) विद्यानन्द, निर्णयसागर प्रेस बम्बई, १६१५, पृ० १७५