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आचार्य अकलंक की प्रमाण - मीमांसा व सत्यता की कसौटी
( समकालीन पाश्चात्य संदर्भ में) डॉ० बच्छराज दूगड़ *
आचार्य अकलंक के अनुसार प्रमाण शब्द भाव, कर्तृ और करण - इन तीनों अर्थों में प्रयुक्त होता है। जब भाव की प्रधानता होती है तो प्रमा को प्रमाण कहते हैं, कर्तृ अर्थ में प्रमातृत्व-शक्ति की प्रधानता होती है, जबकि कारण अर्थ में प्रमाता, प्रमेय और प्रमाण की भेद विवक्षा होती है। इनमें से विवक्षानुसार अर्थ ग्रहण किया जाता है।'
प्रमाण के भावसाधन और कर्तृसाधन के रूप पर कुछ आपत्तियां उठाई गई थीं, जिनका समाधान अकलंक ने किया है। यदि प्रमाण को भाव-साधन के अर्थ में लिया जाये तो चूंकि प्रमा ही प्रमाण है और प्रमा ही फल है, अतएव प्रमा के फल का अभाव हो जायेगा। इस शंका का समाधान करते हुए अकलंक कहते हैं कि आत्मा को इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है वही उसका फल है, अतः प्रमाण का मुख्य फल अज्ञान-निवृत्ति ही है।
प्रमाण को यदि कर्तृसाधन माना जाय तो प्रमाण प्रमाता - रूप हो जाता है । अन्य शब्दों में, प्रमाता आत्मा अर्थात् गुणी और उसका गुण रूप ज्ञॉन भिन्न-भिन्न होंगे, क्योंकि गुणी और गुण में भेद होता है । परन्तु ऐसी धारणा जैनदर्शन के उस आधारभूत सिद्धान्त के विपरीत जाती है, जिसके अनुसार ज्ञान आत्मा से पृथक् नहीं है। इस सन्दर्भ में अकलंक का कहना है कि आत्मा का गुण ज्ञान है। ज्ञान और आत्मा अपनी स्वाभाविक पूर्ण-अवस्था में एक दूसरे से पृथक् नहीं रह सकते। यदि ज्ञान को आत्मा से सर्वथा भिन्न माना जाता है तो आत्मा 'पट' की तरह ' अज्ञ' ज्ञानशून्य जड़ हो जायेगी। कुंदकुंद का कथन है कि यदि ज्ञानी और ज्ञान को सदा एक दूसरे से
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सह-आचार्य एवं विभागाध्यक्ष, अहिंसा, शान्ति एवं अणुव्रत विभाग, जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं (राज0) १. तत्त्वार्थवार्तिक, भाग- १, अकलंक, सं०पं० महेन्द्र कुमार, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १६५३, १-१०-११
२. वही १-१०- ६, ७
३. वही १-१०-८, ६