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________________ आचार्य अकलंकदेव की प्रत्यक्ष प्रमाणं विषयक अवधारणा मान्य मुख्य प्रत्यक्ष ही भावसेन द्वारा स्वीकृत योगिप्रत्यक्ष है । इन्द्रिय प्रत्यक्ष सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का ही एक भाग है । मानस प्रत्यक्ष का सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव किया जा सकता है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने इन्द्रिय- अनिन्द्रिय निमित्तक अतिज्ञान को कहा है, किन्तु अकलंकदेव ने इन्द्रिय प्रत्यक्ष का स्पष्ट ही वर्णन किया है। भावसेन ने विश्वतत्त्व प्रकाश में मानस प्रत्यक्ष की आत्मा के सुख, दुःख, हर्ष आदि का ज्ञान विषयक मर्यादा का प्ररूपण किया है।' किन्तु यह अकलंकदेव द्वारा प्रतिपादित अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के अनुकूल नहीं है । भावसेन ने स्वसंवदेना प्रत्यक्ष का स्वतंत्र प्रकार के रूप में वर्णन किया है। यह अन्य जैन ग्रन्थों में नहीं पाया जाता है किन्तु ज्ञान अपने आपको जानता है। इस विषय में तो सभी जैनाचार्य एकमत हैं। 85 न्यायसूत्र में प्रत्यक्ष के लक्षण में इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही संगृहीत किया है। प्रत्यक्ष प्रमाण के भेद विषयकं निरूपण में सबसे बड़ी विशेषता आचार्य सिद्धसेन के द्वारा दिखलाई गई है- ‘प्रत्यक्षेणानुमानेनप्रसिद्धार्थप्रकाशनात् परस्य तदुपायत्वात् परार्थत्वं द्वयोरपि' अर्थात् अनुमान के समान प्रत्यक्ष के भी स्वार्थ और परार्थ - ये दो भेद किये हैं। इस वर्गीकरण को किसी भी आचार्य ने स्वीकार नहीं किया। भ० सर्वज्ञ ने प्रत्यक्ष के योगिप्रत्यक्ष और अयोगिप्रत्यक्ष ये दो प्रकार वर्जित किये हैं और इनको पुनः सविकल्पक तथा निर्विकल्पक इन दो प्रकारों में विभक्त किया है। इस प्रत्यक्ष प्रमाण के भेदों के निरूपण के अनन्तर यही स्पष्ट होता है कि इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है वह इन्द्रिय के लिए प्रत्यक्ष और आत्मा के लिए परोक्ष होता है इसलिए उसे इन्द्रिय प्रत्यक्ष या सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं । इन्द्रियां धूम आदि लिंग का सहारा लिये बिना अग्नि आदि का साक्षात् करती हैं इसलिए यह इन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है । इन्द्रिय और अनिन्द्रियजन्य ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहने में अनौचित्य नहीं है । सिद्धान्त की भाषा में तो उसे परोक्ष ही कहा गया है। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मतिज्ञान रूप है। इसके ३३६ भेद - प्रभेदों का विस्तृत वर्णन दार्शनिक ग्रंथों में प्रतिपादित है । अकलंकदेव के बाद दिगम्बर - श्वेताम्बर - दोनों परम्पराओं के आचार्य अपनी-अपनी प्रमाणविषयक रचनाओं में कुछ भी परिवर्तन किए बिना अकलंकभट्टकृत वर्गीकरण को स्वीकार करते हैं । १. भावसेन ने योगिप्रत्यक्ष में केवलज्ञान, मन:पर्ययज्ञान तथा अवधिज्ञान को समविष्ट किया है। इनमें पहले दो ज्ञान तो सिर्फ योगियों (महाव्रतियों) को होते हैं; किन्तु अवधिज्ञान गृहस्थों को भी होता है। २ न्यायावतार, कारिका ११ ३ न्यायसार पृष्ठ ७-१३
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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