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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
न्यायसंगत है। यही कारण कि जैन दार्शनिकों ने उसी ज्ञान को वस्तुतः प्रत्यक्ष माना है, जो स्वतंत्र आत्मा के आश्रित हैं। जैनाचार्यों के इस मौलिक चिन्तन के होते हुए भी न्यायविद्या निष्णात आचार्य अकलंकभट्ट ने लोकसिद्ध प्रत्यक्ष को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहकर अनेकान्तदृष्टि का उपयोग किया है।
जो ज्ञान स्पर्शनादि इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है उसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।' यह ज्ञान लोक व्यवहार में प्रत्यक्ष सिद्ध है इसलिए जैनाचार्यों की परवर्ती परंपरा में न्याय-वैशेषिक आदि दार्शनिकों के साथ तारतम्य स्थापित करने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण के स्वरूप में परिवर्तन आवश्यक समझा गया, क्योंकि इतर दर्शनों में इन्द्रियजज्ञान को ही प्रत्यक्ष प्रमाण माना गया है, अतः इन्द्रिय और मन से प्राप्त ज्ञान को व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना है।
___ प्रत्यक्ष प्रमाण के प्रकारों पर जैनाचार्यों ने विविध दृष्टियों से विचार किया है। आगम ग्रंथों में अवधिज्ञान, मनःपर्यय ज्ञान तथा केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणं के. अन्तर्गत प्रतिपादित किया है। आचार्य कुंदकुंद और उमास्वामी इसी परम्परा के अनुयायी हैं, इनके अनुसार अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान हैं, अतीन्द्रिय ज्ञान ही वस्तुतः प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय और मन के आश्रय से होने वाला ज्ञान परोक्ष है। आचार्य अकलंकभट्ट ने प्रत्यक्ष प्रमाण के भेद प्ररूपण में एक नया ही दृष्टिकोण रखा है। इन्होंने इन्द्रिय प्रत्यक्ष, अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष (स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क और अनुमान ये ज्ञान जब तक शब्दाश्रित नहीं होते तब तक मन द्वारा प्रत्यक्ष जाने जाते हैं) तथा अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष (अवधि, मनःपर्यय ज्ञान, केवलज्ञान) ये तीन प्रकार प्रत्यक्ष प्रमाण के स्वीकार किये हैं। इन तीन भेदों में से वे प्रथम दो प्रकार को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष की संज्ञा देते हैं। प्रभाचन्द्र ने अकलंकभट्ट के उक्त वर्गीकरण को स्वीकार तो किया है किन्तु स्मृति आदि को अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं माना है। भावसेन ने आचार्य अकलंकभट्ट की बात को पूर्ण स्वीकार करते हुए प्राचीन आचार्यों की परम्परा को भी प्रत्यक्ष के भेदों में ग्रहण कर योगिप्रत्यक्ष भेद कहा है। इसमें अवधि, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान का समावेश किया है। यहां यह ज्ञातव्य है कि आचार्य अकलंकभट्ट द्वारा
१. इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम्- परीक्षामुखसूत्र, २/५ २. प्रत्यक्षं विशदज्ञानं तत्त्वज्ञानं विशदम्। इन्द्रियप्रत्यक्षमनिन्द्रियप्रत्यक्षमतीनिद्रय प्रत्यक्षं त्रिधा। प्रमाणसंग्रह श्लोक १ की
टीका
३. तत्र सांव्यवहारिकमिन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् । मुख्यमतीन्द्रिय ज्ञानम् । लघीयस्त्रय श्लोक ४ की टीका • ४. लघीयस्त्रय श्लोक १०-११ की संस्कृत टीका ५. विश्वतत्त्व प्रकाश, परिच्छेद ३८