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________________ आचार्य अकलंकदेव की प्रत्यक्ष प्रमाण विषयक अवधारणा माना जाता है। राजवार्तिक में आचार्य अकलंकदेव ने परापेक्षा रहित के अर्थ में प्रत्यक्ष का स्वरूप स्पष्ट किया है । यथा - “इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षम्”” अर्थात् इन्द्रिय और मन की अपेक्षा के बिना व्यभिचार रहित जो साकार ग्रहण होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । आचार्य अकलंक ने न्यायविनिश्चय में भी इसी को स्पष्ट किया है- " स्पष्ट और सविकल्प तथा व्यभिचार आदि दोष रहित होकर सामान्य रूप द्रव्य और विशेष रूप पर्याय अर्थों को तथा अपने स्वरूप को जानना ही प्रत्यक्ष प्रमाण है । २” 83 प्रत्यक्ष का पदार्थ के साथ अव्यवहित ( साक्षात् ) संबंध होता है। इसकी मूल में दो शाखायें हैं- (१) आत्मप्रत्यक्ष, (२) इन्द्रिय- अनिन्द्रियप्रत्यक्ष । प्रथम शाखा परमार्थाश्रयी है, इसलिए इसे वास्तविक प्रत्यक्ष जाना जाता है। दूसरी औपचारिक या व्यवहाराश्रयी है। परमार्थाश्रयी प्रत्यक्ष को आत्मप्रत्यक्ष भी कहा जाता है। यह दो प्रकार का है - . देशप्रत्यक्ष और सर्वप्रत्यक्षं । केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि वह त्रिकाल विषयक समस्त पदार्थों को विषय करने वाला, अतीन्द्रिय, अक्रमवृत्ति, व्यवधान से रहित और आत्मा एवं पदार्थ की समीपता मात्र से प्रवृत्त होने वाला है । अवधि और मनःपर्याय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि उनमें सकल प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं पाया जाता है। आचार्य अकलंक ने प्रत्यक्ष के तीन प्रकार के भेदों का वर्णन किया है। देवों द्वारा प्राप्त दिव्यज्ञान, द्रव्य व पर्यायों को अथवा सामान्य व विशेष पदार्थों को जानने वाला ज्ञान तथा आत्मा को प्रत्यक्ष करने वाला स्वसंवेदन ज्ञान । • I प्रायः सभी दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैं। आचार्य अकलंक भट्ट `से पूर्ववर्ती सभी जैनाचार्यों का कहना है कि आत्मप्रत्यक्ष ही प्रत्यक्ष है, इसका अन्य किसी भी ज्ञान की अपेक्षा प्राथमिक स्थान है । इन्द्रियाँ परिमित प्रदेश में अतिस्थूल . वस्तुओं से आगे जा नहीं सकती हैं, अतः उनसे उत्पन्न होने वाले ज्ञान को परोक्ष प्रमाण से ऊँचा स्थान देना इन्द्रियों का विशिष्ट मूल्याङ्कन होगा । इन्द्रियाँ कितनी कुंशल क्यों न हों, किन्तु वे अन्ततः हैं तो परंतंत्र ही । अतएव परतन्त्र जनित ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ प्रत्यक्ष मानने की अपेक्षा स्वतंत्र जनित ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मानना १. राजवार्तिक १/१२/१ २. न्यायविनिश्चय १/३ ३. सकलप्रत्यक्षं केवलज्ञानं विषयीकृतत्रिकालगोचराशेषार्थत्वात् अतीन्द्रियत्वात् अक्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानात् आत्मार्थ सन्निधानमात्रप्रवर्तनात्। अवधिमनः पर्ययज्ञाने विकलप्रत्यक्षम् । तत्र साकल्ये प्रत्यक्षलक्षणाभावात् ।। धवल ६/४.१.४५ ४. प्रत्यक्षं त्रिविधं देवैः दीप्यतामुपपादितम् द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम्। न्यायविनिश्चय टीका १/३, पृष्ठ ११५
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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