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________________ आचार्य अकलंकदेव की प्रत्यक्ष प्रमाण विषयक अवधारणा डॉ० श्रेयांसकुमार जैन वस्तुस्वरूप के बोध के निमित्त या कारण प्रमाण, नय और निक्षेप हैं। आचार्य श्री उमास्वामी ने कहा है कि “प्रमाणनयैरधिगमः” प्रमाण और नय से वस्तु स्वरूप का बोध होता है। आचार्य अकलंकदेव कहते हैं ज्ञानं प्रमाणमात्यादरूपायो न्यास इष्यते। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः ।। लघी० ५२।। ... आत्मा आदि पदार्थों का ज्ञान ही प्रमाण है। इनको जानने का उपाय निक्षेप है तथा ज्ञाता के अभिप्राय का नाम नय है। इनके द्वारा ही पदार्थ का ज्ञान होता है। आचार्य अकलंक भट्ट प्रमाणशास्त्र के सर्वश्रेष्ठ अधिकारी विद्वान् है। अतएव पदार्थ बोध के प्रथम कारणभूत प्रमाण के प्रमुख भेद प्रत्यक्ष पर आचार्य अकलंकभट्ट के विशेष अवदान को दृष्टि में रखकर विचार किया जा रहा है। _ 'विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है।" आचार्य अकलंक द्वारा विशद शब्द को लक्षण में स्थान देने का विशेष कारण है, क्योंकि आचार्य अकलंकभट्ट की प्रमाण-व्यवस्था में व्यवहार दृष्टि का भी आश्रयण हैं। इनसे पूर्ववर्ती आचार्यों ने कहा है- प्रत्यक्ष प्रमाण वह है जिसमें केवल (इन्द्रियों तथा मन की सहायता के बिना ही) आत्मा को पदार्थों का ज्ञान होता है। अतएव अवधि, मनःपर्यय तथा केवलज्ञान- इन तीन ज्ञानों को ही वे प्रत्यक्ष कहते हैं तथा इन्द्रियों और मन से होने वाले मति तथा श्रुत-इन दोनों ज्ञानों को परोक्ष कहा है। आचार्य अमृतचंद्र ने भी आचार्य कुंदकुंद के अनुसार ही कहा है कि मन, इन्द्रिय, परोपदेश आदि सर्व परद्रव्यों की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारण रूप से ग्रहण करके सर्व द्रव्य पर्यायों के समूह में एक समय ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न होता है इसलिए प्रत्यक्ष के रूप में * रीडर संस्कृत, दि० जैन कालेज, बड़ौत, (उ०प्र०) १. प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम्, द्विसन्धानकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् २. प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानम्- लघीयस्त्रय १/३ ३. जदि केवलेण जादं हवदि हि जीवेण पच्चक्ख । प्रवचनसार, गाथा ५८
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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