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अनेकान्त के अद्वितीय व्याख्याकार अकलंकदेव
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से स्याद्वादी के तो सर्व घटित हो सकता है।
अनैकान्तिकत्वात्, ८/४/११ इसमें अनैकान्तिकत्व है।
इस प्रकार तत्त्वार्थवार्तिक ग्रन्थ में विषय प्रतिपादन के लिये अनेकान्त सिद्धान्त का भरपूर प्रयोग अकलंकदेव ने किया है। अनेकान्त को गरिमा और प्रतिष्ठा देने वाले इस अनोखे चिन्तन के लिये जैन वाङ्मय की चर्चा के समय अकलंकदेव का नाम सर्वोपरि स्मरणीय रहेगा।