________________
जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
अनेकान्तात्, ५/१२/६-इसमें अनेकान्त है। अनेकान्तात्, ५/१६/५-अनेकान्त होने से आत्मप्रदेशों का विशरण नहीं होता। अनेकान्ताच्च समग्रविकलेन्द्रियवत्, ५/१७/२७ समग्र और विकलेन्द्रिय की तरह यह अनेकान्त है।
अनेकान्ताच्च तत्सिद्धिः, ५/१८/५-अनेकान्त से इनके आधार-आधेय भाव की सिद्धि होती है।
___ अर्थान्तरमिति चेत्, न, अनेकान्तात् इन्द्रियवत्, ५/१६/२१-इन्द्रिय के समान अनेकान्त होने से मन अर्थान्तर नहीं है।
कर्मवदिति चेत् न अनेकान्तात्, ५/१६/२६-अनेकान्त होने से कर्म का दृष्टान्त भी उपयुक्त नहीं है।
व्यवस्थिताव्यवस्थितदोषादिति चेत, न अनेकान्तात्, ५/२२/१४-अनेकान्तं पक्ष में व्यवस्थित और अव्यवस्थित दोष भी नहीं आते हैं। .
मत्वर्थीयप्रयोगादन्यत्वं शब्दादीनां दण्डवदिति चेत्, न, अनेकान्तात्, ५/२४/२३ शब्द-बंध आदि के मतु-अर्थीय प्रत्यय का प्रयोग होने से दण्ड ,के समान यह पुद्गल से भिन्न है, ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि पर्याय-पर्यायी में भेदाभेद अनेकान्त है।
अनेकान्तः कारणत्वादिविकल्पः, ५/२५/१६ कारणत्वादि के प्रति अनेकान्त है।
उत्पादादीनां द्रव्यस्य चोभयथा. लक्ष्यलक्षणभावानुपपत्तिरिति चेत्, न, अन्यत्वानन्यत्वं प्रत्यनेकान्तोपपत्रेः, ५/३०/११-द्रव्य के उत्पादादि के दोनों प्रकार से लक्ष्य-लक्षण भाव नहीं है, ऐसी आशंका उचित नहीं है, क्योंकि उत्पादादि के भिन्न और अभिन्न के प्रति अनेकान्त है।
अनेकान्ताच्च लावकादिवत्, ६/१/११-लावक (काटने वाला) आदि के समान इसमें अनेकान्त है।
___ इन्द्रियादीनामात्मनोऽनन्यत्वान्यत्वं प्रत्यनेकान्तः, ६/५/६-इन्द्रियादि आत्मा से भिन्न है कि अभिन्न, इसमें अनेकान्त है।
तदेकान्तावधारणेऽनुपपन्नम् अन्यतरैकान्तसंग्रहात्, ६/११/१०-एकान्त की अवधारणा ठीक नहीं है, किसी एक का संग्रह होने से।
एकान्तवादिनां तदनुपपत्रिर्बन्धाभावात्, ७/१३/११-बंध का अभाव होने से एकान्तवादियों के हिंसा और अधर्म की अप्राप्ति है। - स्याद्वादिनस्तदुपपत्रिरनेकान्ताश्रयणात्, ७/३६/१२-अनेकान्त का आश्रय होने