________________
अनेकान्त के अद्वितीय व्याख्याकार अकलंकदेव
79
क्षणिकैकांन्तेऽप्यवस्थानाभावात् ज्ञानवैराग्यभावनाभावः। १/१/५७ क्षणिक एकान्त में भी अवस्थान का अभाव होने से ज्ञान-वैराग्य का अभाव है। अनेकान्ताच्च, १/४/५-अनेकान्त दृष्टि से विचार करना चाहिये। अनेकान्ताच्च, १/५/२२-इनमें अनेकान्त है। अनेकान्तात्, १/५/३०-इसमें अनेकान्त है। अनेकान्ते तदभावादव्याप्तिरिति चेत्, न, तत्रापि तदुपपत्तेः। १/६/६ अनेकान्त में स्याद्वाद की कल्पना में भी दोष आता है, ऐसा कहना उचित नहीं है। अनेकान्तात्सिद्धिः, १/१०/१३-अनेकान्त से सिद्धि होती है। न, अनेकान्तात्, १/१७/४-अनेकान्तं होने से ऐसा नहीं कहना चाहिये। अनेकान्ताच्च, १/२०/५-अनेकान्त है। अनेकान्तात्, २/७/२५-मूर्तिक-अमूर्तिक के प्रति अनेकान्त है। एषां च स्वतस्तद्वतश्चैकत्वपृथक्त्वं प्रत्यनेकान्तः, २/१६/१२ इन इन्द्रियों का परस्पर एकत्व और पृथक्त्व के प्रति अनेकान्त है। . . तेषां च स्वतस्तद्वतश्चैकत्वं पृथक्त्वं प्रत्यनेकान्तः, २/२०/५ तद्वान् में एकत्व और पृथक्त्व के प्रति अनेकान्त जानना चाहिये। एकान्तेनादिमत्वे अभिनवशरीरसम्बन्धाभावो निर्निमित्तत्वात्,२/४१/३
एकान्त से अनादिमान् ही स्वीकार कर लेने पर निर्निमित्त होने से नवीन शरीर से सम्बन्ध का अभाव हो जायेगा।
एकान्तेनानादित्वे चानिर्मोक्षप्रसंगः, २/४१/५ 'एकान्त से अनादिमान मान लेने पर भी निर्मोक्ष का प्रसंग आयेगा। अनेकान्ताच्च, ४/१३/३ इसमें भी अनेकान्त है। अनेकशस्तिप्रचितत्वात्, ४/४२/६ ।
आत्मा अनेक शक्तियों का आधार होने से भी अनेकधर्मात्मक है। गुणसंद्रावो द्रव्यमिति चेत्, न एकान्ते दोषोपपत्ते, ५/२/६
एकान्त पक्ष में अनेक दोष आने से गुणों के सन्द्राव को द्रव्य कहना भी ठीक नहीं है। . एकानेकप्रदेशत्वं प्रत्यनेकान्तात् पुरुषवत्, ५/८/२१
पुरुष के समान एक-अनेक प्रदेशत्व के प्रति अनेकान्त है। अनेकान्तात्,५/१०/४-इसमें भी अनेकान्त है।