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________________ जैन- न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान • अकलंकदेव ने पूर्वाचार्यों के दो महान् ग्रन्थों पर टीकायें भी लिखीं। अनेकान्तकी विशद व्याख्या करने वाले आचार्य समन्तभद्र स्वामी के महान् ग्रंथ 'आप्तमीमांसा' पर उन्होंने ८०० श्लोक प्रमाण वृत्ति लिखी जो अष्टश्ती नाम से प्रसिद्ध हुई । इसमें उन्होंने अन्य दर्शनों के विभिन्न वादों जैसे द्वैत-अद्वैतवाद, दैव - पुरुषार्थवाद आदि की समीक्षा अनेकान्त दृष्टि से प्रस्तुत की । 'अष्टशती' में वस्तु की अनेकान्तात्मकता सिद्ध करने के लिये भी अनेक अकाट्य तर्क उन्होंने दिये हैं । 78 दूसरी शताब्दी में हुए परम उपकारी आचार्य उमास्वामी महाराज के महान् तथा संस्कृत भाषा के प्रथम जैन सूत्र ग्रन्थ 'तत्त्वार्थसूत्र' की टीका के रूप में लिखा गया तत्त्वार्थवार्तिक’ अपर नाम 'राज़वार्तिक' ग्रन्थ अकलंकदेव का दूसरा टीका ग्रन्थ है । तत्त्वार्थसूत्र ग्रैन्थ पर संस्कृत में ही अनेक आचार्य ने टीकायें लिखी हैं। आचार्य पूज्यपाद की ‘सर्वार्थसिद्धि' नामक टीका और आचार्य विद्यानन्द की ' श्लोकवार्तिकालंकार' नामक टीका के बाद आचार्य अकलंकदेव की तत्त्वार्थवार्तिक संभवतः सबसे विशद अर्थ प्ररूपक टीका है। तत्त्वार्थवार्तिक के सभी वार्तिक आचार्य अकलंकदेव ने गद्य में ही लिखे हैं और उनकी यह भी विशेषता है कि सूत्र रूप में वार्तिक लिखकर उन्होंने स्वयं ही उसकी व्याख्या भी संस्कृत गद्य में ही लिखी है। इस विशेषता के कारण ही दश अध्याय वाले इस ग्रंथ के प्रत्येक अध्याय के अंत में ' इति तत्त्वार्थवार्तिके व्याख्यानालंकारे....उ पंक्ति लिखी गई है। .अध्यायः' आचार्य अकलंकदेव ने ‘तत्त्वार्थसूत्र' के सूत्रों की व्याख्या में अनेक विषयों का, विशेषकर दार्शनिक तथा सैद्धान्तिक विषयों का, विशदं विवेचन तो किया ही है, साथ ही प्रायः सभी जगह अपने मन्तव्य को अनेकान्त के द्वारा समझाने का प्रयास किया है। केवल व्याख्या में ही नहीं, उन्होंने वार्तिकों में भी अनेक जगह अनेकान्त शब्द का प्रयोग किया है। कहीं-कहीं तो वार्तिक मात्र अनेकान्त शब्द से ही बनाये गये हैं । देखें तत्त्वार्थवार्तिक में अनेकान्त के उद्धरण ‘अनेकान्तात् पर्यायपर्यायिणोरर्थान्तरभावस्य घटादिवत् । १/१/१६ पर्याय और पर्यायी के भेद और अभेद में घटादि के समान अनेकान्तपना है । नित्यानित्यैकान्तावधारणे तत्कारणासंभवः । १/१/५५ आत्मा के नित्य व अनित्य की एकान्त अवधारणा में मोक्ष के कारणों की असंभव है।
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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