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________________ अनेकान्त के अद्वितीय व्याख्याकार अकलंकदेव गृहस्थी के मांयाजाल से बच जाने के कारण साधना के साथ विद्यार्जन में ही उन्होंने अपना सारा ध्यान केन्द्रत किया । फलस्वरूप केवल जैनदर्शन तथा विशेष रूप से अनेकान्त की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने अनेक शास्त्रार्थ किये और उनमें विजयी होकर सफल शास्त्रार्थी विद्वान् के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त की विद्याध्ययन के साथ ही संयम की साधना भी उनका अभीष्ट था, अतः मुनिदीक्षा लेकर उन्होंने तपस्या भी की और बाद में आचार्य पद पर भी प्रतिष्ठित हुए। साधना और स्वाध्याय ने उनके चिन्तन को इतना प्रगाढ़ किया कि वे अपनी वाणी और कलम के माध्यम से वस्तु-स्वरूप की सम्यक् विवेचना करके मिथ्याभ्रान्तियों के निराकरण में सफल हुए तभी तो श्रवणबेलगोल का वह शिलाभिलेख आज भी उनके सूर्य समान प्रताप की गाथा कह रहा है 77 ततः परं शास्त्रविदां मुनीनऽमग्रेसरीभूदकलंकसूरिः । मिथ्यान्धकारस्थगिताखिलार्थाः प्रकाशिता यस्य वचो मयूखैः । अभिलेख १०८ अकलंकदेव जैनन्याय के पुरोधा माने जाते हैं। उनकी प्रमाण व्यवस्था को बाद के आचार्य भगवन्तों ने बहुत सराहा और अपनी रचनाओं में उनका उल्लेख भी किया । महापुराण के रचयिता प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेन महाराज ने अकलंकदेव का श्रद्धापूर्वक स्मरण इस प्रकार किया है भट्टांकलंक-श्रीपाल-पात्रकेसरिणां गुणाः । विदुषां हृदयारूढा हारायन्ते ऽतिनिर्मलाः । जिनवाणी के साधकों की प्रशंसा में लिखी गई ये दो पंक्तियां भी बहुत प्रसिद्ध हैं, जिनमें अकलंकदेव के प्रमाण विषयक अवदान की प्रशंसा की गई हैप्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् । धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् । आचार्य अकलंकदेव ने प्रमाण, नय, निक्षेप आदि की व्याख्या में " लघीस्त्रय" नामक ग्रन्थ लिखा । प्रत्यक्ष ज्ञान, अनुमान ज्ञान आदि का विवेचन करने के लिये उन्होंने 'न्यायविनिश्चय' नामक ग्रन्थ की रचना की । प्रमाण को विस्तार से समझाने के लिये 'प्रमाणसंग्रह' ग्रन्थ लिखा और फिर 'सिद्धिविनिश्चिय' नामक ग्रंथ लिखकर उसके १२ अधिकारों में प्रत्यक्षसिद्धि, सविकल्पसिद्धि, प्रमाणान्तरसिद्धि, जीवसिद्धि, सर्वज्ञसिद्धि, निक्षेपसिद्धि का विस्तृत विवेचन किया । इस प्रकार उन्होंने चार मौलिक ग्रन्थों की रचना की I
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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