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अनेकान्त के अद्वितीय व्याख्याकार अकलंकदेव
श्री निर्मल जैन*
जैन दर्शन में वीतरागता को सर्वोच्च मान्यता दी गई है । कोई भी साधक वीतं हुए बिना सर्वज्ञ तो हो ही नहीं सकता, जिनेन्द्रदेव की वाणी को आंशिक रूप में. हृदयस्थ करके जीवों के कल्याण के लिये उसे व्याख्यायित करने की शक्ति भी उन्हें ही प्राप्त होती है जो साधना के माध्यम से राग-द्वेष से ऊपर उठने का पुरुषार्थ करते हैं। यही कारण है कि जैन वाङ्मय का विपुल भण्डार प्रायः वीतरागी संतों के द्वारा ही भरा गया है।
जिनवाणी का हार्द हमारे कल्याण के लिये लिपिबद्ध करने वाले उन आचार्य भगवंतों के ज्ञान की महिमा तो है ही, साथ ही उनकी विशिष्ट साधना भी प्रणम्य है । हमारे उन आचार्य भगवंतों का कोई श्रृंखलाबद्ध जीवन-परिचय हमें उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि वे मनीषी यश-ख्याति की चाह से निर्लिप्त थे किन्तु परवर्ती आचार्यों ने . अपने ग्रन्थों में उनका जिस प्रकार स्मरण किया तथा बाद के श्रद्धालु सन्तों - श्रावकों ने जनश्रुति आदि के आधार पर जो तथ्य एकत्र किये, उनसे यह सहज ही समझा जा सकता है कि हमारे वे मान्य आचार्य किस प्रकार अपने जीवन के प्रारम्भ से ही मोक्षमार्ग पर चलने और चलाने का संकल्प लिये हु थे।
प्रायः सभी प्रमुख जैनाचार्यों ने घर-गृहस्थी के जंजाल को स्वीकार नहीं किया और बचपन से ही साधना- स्वाध्याय में निरत हो गये । सातवीं-आठवीं शताब्दी में हुए प्रसिद्ध तार्किक एवं दार्शनिक आचार्य अकलंकदेव भी एक ऐसे ही प्रज्ञावान् साधक सन्त
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अपनी बाल्यावस्था में पिताश्री को किन्हीं मुनिराज के चरणों में अष्टानिका पर्व के आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत लेते देखकर बालक अकलंक ने भी मन में ही ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया और उसकी किसी सीमा आदि का संकल्प नहीं किया। अंतः कुमार अवस्था में पिताश्री की प्रेरणा के बाद भी विवाह उन्हें स्वीकार नहीं हुआ ।
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सुषमा प्रेस, कम्पाउण्ड, सतना, ( म०प्र०) - ४८५००१