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अनेकान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव
संशय का अभाव होता है। यदि विरोध होगा तो संशय अवश्य होगा परन्तु नयों के माध्यम से कथित धर्मों में विरोध नहीं होता।
___ इस प्रकार आ० अकलंकदेव ने अनेकान्त की प्रक्रिया की प्रतिष्ठापना में मसहनीय योगदान दिया। तत्त्वार्थवार्तिक में अनेकान्त विषयक जो मान्यताएँ हैं वे अनेकान्त व्यवस्था का सम्यक् प्रतिपादन करते हैं। वे बिन्दु निम्न हैं -
१. कर्त्ता और करण के भेदाभेद की चर्चा । २. आत्मा का ज्ञान से भिन्नाभिन्नत्व। ३. मुख्य और अमुख्यों का विवेचन करते हुए अनेकान्त दृष्टि का समर्थन। ४. सप्तभंगी के निरूपण के पश्चात् अनेकान्त में अनेकान्त की सुघटना।
५. अनेकान्त में प्रतिपादित छल, संशय आदि दोषों का निराकरण करते हुए अनेकान्तात्मकता की सिद्धि।
६. नयों का सोपपत्तिक निरूपण। ७. वस्तु व्यवस्था में अनेकान्त की आवश्यकता।
हमें आ० अकलंकदेव के ग्रन्थों के आलोक में सम्यक् प्रकार से अनेकान्त व्यवस्था को समझकर वस्तुतत्त्व का समीचीन श्रद्धान करना चाहिए।
१. तत्त्वार्थवार्तिक, भाग- १. प०९-E