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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
प्ररूपणा छल मात्र है, ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि छल के लक्षण का अनेकान्त में अभाव है। छल का लक्षण है, 'वचन विघातोऽर्थविकल्पोपपत्या छलम्' अर्थात् अर्थों के विकल्प की उपपत्ति से वचनों का विघात। जैसे 'नवकम्बलो देवदत्तः' यहाँ नव शब्द के दो अर्थ हैं। एक ६ संख्या और दूसरा नया। तो 'नूतन विवक्षा' से कहे गये नव शब्द का ६ संख्या रूप अर्थ विकल्प करके वक्ता के अभिप्राय से मिला अर्थ की कल्पना छल कही जाती है, जैसे- इसके नव कम्बल है, इस कथन में वक्ता का अभिप्राय था, इसके पास नौ कम्बल हैं, चार-पांच नहीं। श्रोता ने इसका अर्थ लिखा इसका कम्बल नया कम्बल है, पुराना नहीं। किन्तु सुनिश्चित उभय नय के वश के कारण मुख्य गौण विवक्षा से संभव अनेक धर्मों का सुनिर्णीत रूप से प्रतिपादन करने वाला अनेकान्तवाद छल नहीं हो सकता क्योंकि इसमें वचनविघात नहीं किया. गया है, अपितु यथावस्थित वस्तुतत्त्व का निरूपण किया गया है।'
____ अनेकान्तवाद संशय का हेतु नहीं- एक आधार में विरोधी अनेक धर्मों का . रहना असंभव है, अतः अनेकान्तवाद संशय का हेतु है, क्योंकि आगम में लिखा है कि द्रव्य एक है, पर्यायें अनन्त हैं, आगम प्रमाण से वस्तु अस्ति है कि नास्ति है ? नित्य है कि अनित्य है इत्यादि प्रकार से संशय होता है ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि विशेष लक्षण की उपलब्धि होती है। सामान्य धर्म का प्रत्यक्ष होने से विशेष धर्मों का प्रत्यक्ष न होने पर (किन्तु) उभय विशेषों का स्मरण होने से संशय होता है। जैसेधुंधली (न अति प्रकाश है न अधिक अंधेरा) ऐसी रात्रि में स्थाणुं और पुरुषगत ऊंचाई आदि सामान्य धर्म की प्रत्यक्षता होने पर स्थाणुगत कोटर पक्षी निवास और पुरुषगत सिर खुजलाना, चोटी बांधना, वस्त्र हिलाना आदि विशेष धर्मों के न दिखने पर, किन्तु इन विशेषों का स्मरण रहने पर (ज्ञान दो कोटियों में दोलित हो जाता है कि यह स्थाणु है या पुरुष) संशय उत्पन्न हो जाता है किन्तु अनेकान्तवाद में विशेष धर्मों अनुपलब्धि नहीं है क्योंकि स्वरूपादि के आदेश से वशीकृत उक्त विशेष प्रत्यक्ष उपलब्ध होते हैं। अतः विशेष की उपलब्धि होने से अनेकान्तवाद संशय का हेतु नहीं है अर्थात् सब धर्मों की सत्ता अपनी-अपनी निश्चित अपेक्षाओं से स्वीकृत है। तत्-धर्मों का विशेष प्रतिमास निर्विवाद सापेक्ष रीति से बताया गया है। अनेकान्तवाद को संशय का आधार भी कहना उचित नहीं है कि अस्ति आदि धर्मों को पृथक्-पृथक् सिद्ध करने वाले हेतु हैं या नहीं ? यदि हेतु नहीं हैं तो प्रतिपादन कैसा? यदि हेतु हैं तो एक ही वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों की सिद्धि होने पर संशय होना ही चाहिए। विरोध के अभाव में १. वही, पृ०१७-१८