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अनेकान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव
उपस्थित करते हुए लिखा है कि अनेकान्त में भी विधि-प्रतिषेध की कल्पना नहीं है। यदि अनेकान्त में यह विधि-प्रतिषेध कल्पना लगती है तो वह अनेकान्त नही हो सकता है क्योंकि जिस समय अनेकान्त में 'नास्ति' भंग प्रयुक्त होता है, उस समय एकान्तवाद का प्रसंग आ जायेगा और अनेकान्त में भी अनेकान्त लगाने पर अनवस्था दूषण आता है अतः अनेकान्त को अनेकान्त ही कहना चाहिए, इसलिए सप्तभंगी भी व्याप्तवान नहीं है। इसका समाधान देते हुए वर्णन है कि ऐसा मानना उचित नहीं है क्योंकि अनेकान्त में भी 'स्याद् एकान्त, स्याद् अनेकान्त, स्याद् उभय, स्याद् अवक्तव्य, स्याद् एकान्त अवक्तव्य, स्यादु अनेकान्त अवक्तव्य, स्याद् उभय, वक्तव्यं इस प्रकार प्रमाण और नय की दृष्टि से अनेकान्त रूप से अनेकमुखी कल्पनाएँ हो सकती हैं अर्थात् प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्त है और नय की अपेक्षा एकान्त है।
प्रमाण और नय की विवक्षा से भेद है। एकान्त दो प्रकार का है- सम्यक् और मिथ्या। अनेकान्त भी सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त के भेद से दो प्रकार का है। प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एकदेश की हेतु विशेष के सामर्थ्य की अपेक्षा से ग्रहण करने वाला सम्यक् एकान्त है। एक धर्म का सर्वथा (एकान्तरूप से) अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या-एकान्त है। एक वस्तु में युक्ति और आगम के अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों को ग्रहण करने वाला सम्यक् अनेकान्त है तथा वस्तु को तत्-अतत् आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करने वाला अर्थशून्य वाग् विलास मिथ्या अनेकान्त हैं। . एक धर्म का निश्चय करने में प्रवीण होने से नय की विवक्षा से एकान्त है। अनेक धर्मों के निश्चय का अधिकरण (आधार) होने के कारण प्रमाण विवक्षा से अनेकान्त है। यदि अनेकान्त, अनेकान्त ही माना जाए और एकान्त का लोप किया जाए तो सम्यक् एकान्त के अभाव में शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह तत्समुदाय रूप अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा। यदि एकान्त ही माना जाये तो उसके अविनाभावी शेष धर्मों का निराकरण हो जाने से प्रकृत शेष का भी लोप हो जाने से सर्वलोप का प्रसंग प्राप्त होता है।' ___अनेकान्त में छल का अभाव है- आचार्य अकलंकदेव कहते हैं कि अनेकान्त छल मात्र है ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि छल के लक्षण का अनेकान्त में अभाव है। जो अस्ति है वही नास्ति है, जो नित्य है वही अनित्य है, इस प्रकार अनेकान्त की
१. वही, पृ० ६६-६७ .