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________________ अनेकान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव 1 प्रदानाधिकरण, भय, हर्ष, शोक, परिताप जननादि स्वकार्य के प्रसाधन के निमित्त से उत्पाद अनेक प्रकार का है । जैसे- उत्पाद अनेक प्रकार का है उसी प्रकार उत्पाद का प्रतिपक्षी विनाश भी उतने ही प्रकार का है क्योंकि पूर्व पर्याय का विनाश हुए बिना नूतन उत्पाद की संभावना नहीं है । उत्पाद और विनाश की प्रतिपक्षीभूत स्थिति भी उतने ही प्रकार की है क्योंकि उत्पत्ति और विनाश की आधारभूत स्थिति के बिना बन्ध्या के पुत्र के समान उत्पन्न और विनाश के अभाव का प्रसंग आता है अर्थात् स्थिति के बिना उत्पाद और विनाश नहीं हो सकते हैं। घर उत्पन्न होता है, इस प्रयोग को वर्तमान काल तो इसलिए नहीं मान सकते कि अभी तक घड़ा उत्पन्न ही नहीं हुआ है अर्थात् पूर्वापरीभूत सांध्यमान भाव में अभिधान का वर्तमान में असत्व है । उत्पत्ति के अनन्तर यदि शीघ्र ही विनाश मान लिया जाये तो सद्भाव की अवस्था का प्रतिपादक कोई शब्द ही प्रयुक्त नहीं होगा तथा प्रतिपादक शब्द का अभाव होने से उत्पाद में भी अभाव हो जाएगा और विनाश में भी अभाव हो जाएगा और भावाभाव ( अस्ति - नास्ति ) रूप पदार्थ का विनाश हो जाने पर तदाश्रित व्यवहार का भी लोप हो जायेगा तथा बीज शक्ति का अभाव होने से उत्पाद और विनाश शब्द वाच्यता का भी अभाव हो जायेगा । अतः पदार्थ में उत्पद्यमानता, उत्पन्नता और विनाश ये तीन अवस्थाएँ अवश्य स्वीकार करनी चाहिए तथा एक ं जीव में भी द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नय के गोचर सामान्य विशेष अनन्त शक्तियां और उत्पत्ति, विनाश, स्थिति आदि रूप होने से अनेकतात्मकता समझनी चाहिए।' २ परस्पर विरोध प्रतीत होते हुए भी उत्पाद, व्यय, धौव्यत् इन तीनों के युगपत् होने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि जिस दृष्टि से उत्पाद और व्यय की कल्पना करते हैं, यदि उसी दृष्टि से धौव्य नित्य कहा जाता है तो अवश्य विरोध आता है जैसे कि .एक ही अपेक्षा किसी पुरुष को पिता और पुत्र कहते हैं परन्तु धर्मान्तर का आश्रय लेकर कहने में कोई विरोध नहीं है। जैसे- एक ही पुरुष को पिता की अपेक्षा पुत्र और पुत्र की अपेक्षा पिता कहा जाए तो कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा द्रव्य को अनित्य कहने में कोई विरोध नहीं है। अतः दोनों की अपेक्षा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों एक साथ घटित हो जाते हैं। द्रव्य और पर्याय का अविनाभाव - आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में लिखा ३. वही पृ० ७०७७०८ 71 तत्वार्थवानिकम्, भाग-२, ५० २२१
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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