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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
समुदाय अवयव के प्रध्वंश रूप का विषय करने वाले अतीतकाल, उत्पत्ति की निश्चय से संभावना करने वाले भविष्यत् काल और साधन प्रवृत्ति अविराम (क्रिया सातत्यरूप) वर्तमान काल के सम्बन्ध से मिट्टी आदि द्रव्य उन-उन कालों में अनेक भेदों (पर्यायों) को प्राप्त होते देखे जाते हैं। यदि वर्तमान काल मात्र माना जाय तो पूर्व और अपरत्व (उत्तर) की अवधि का अभाव होने से “वन्ध्या का पुत्र युवा है" इस कथन के समान वर्तमान काल का भी अभाव हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा भी अनादि अतीत काल सम्बन्धी परिणत सम्भावनीय, अनन्त भविष्यत्कालवर्ती तथा वर्तमान कालोद्भूत अर्थ
और व्यंजनों पर्यायों के भेद से द्वैविध्य को प्राप्त होने वाली पर्याय (अर्थपर्याय और व्यञ्जन पर्यायों) के सम्बन्ध से अनन्तधर्मात्मक है।'
उत्पाद, व्यय और घौव्यात्मकता से पदार्थ की अनेकधर्मात्मकता- जैनदर्शन में द्रव्य का लक्षण सत् कहा गया है और वह सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है। इस कारण से भी पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है। अनन्तकाल और एक काल में अनन्त. प्रकार के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के कारण आत्मा अनेकान्त रूप है। जैस- घट एक ही काल में द्रव्य दृष्टि से पार्थिव (मिट्टी) रूप से उत्पन्न होता है, जल रूप से नहीं, देश की अपेक्षा यहाँ उत्पन्न होता है, पटना आदि में नहीं, काल की विवक्षा से वर्तमान काल में उत्पन्न होता है, अतीत अनागत काल में नहीं, भाव दृष्टि से बड़ा उत्पन्न होता है छोटा नहीं । द्रव्यादि के एक-एक का यह उत्पाद सजातीय मिट्टी के अनेक अन्य घटान्तरगत, सुवर्ण आदि ईषद् विजातीय घटान्तरगत और अत्यन्त विजातीय पर (वस्त्र) आदि अनन्त मूर्तिक-अमूर्तिक द्रव्यान्तरगानन्तत उत्पाद से विभमान (भेद रूप) होते हुए उत्पाद उतने ही भेदों को प्राप्त हो जाता है अर्थात् मिट्टी से घट का उत्पाद, स्वर्ण घट का उत्पाद, पट का उत्पाद आदि के भेद से उत्पाद अनेक प्रकार का हो जाता है। यदि उत्पाद में भेद नहीं माना जाायेगा तो सर्व घटों के साथ अविशेषता (अभिन्नता) आ जायेगी। सर्व एकता को प्राप्त हो जायेंगे। इसी प्रकार वही द्रव्य (घट) उस समय अनुत्पद्यमान (उत्पन्न नहीं होने वाले) द्रव्य के सम्बन्ध से कृत, ऊपर-नीचे, तिरछे, अन्तरित, अनन्तरित, एकान्तरादि दिशाओं के भेद से, महान्-अल्प आदि गुण भेद से, रूपादि के उत्कर्ष-अपकर्ष आदि अनन्त भेद से और त्रिलोक एवं त्रिकाल विषय सम्बन्धी भेद से, भिद्यमान रूप (भेद को प्राप्त होने वाला) उत्पाद अनेक प्रकार का है तथा अनेक अवयवात्मक स्कन्ध प्रदेश भेद, दृष्ट, विषम उत्पाद की नानारूपता होने से भी उत्पाद अनेक प्रकार का है अथवा जलधारण, आहरण १. वही, पृ० ७०७-७०८