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अनेकान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य अकलंकदेव
जैसे घड़ा जल-धारण, आहरण आदि अनेक शक्तियों से युक्त हैं उसी प्रकार आत्मा भी द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव के निमित्त से अनेक प्रकार की विकार प्राप्ति के योग्य वैभाविक शक्तियों के योग से अनेकधर्मात्मक है।' ___सम्बन्धि रूपत्व होने से अनेक धर्मात्मकता- वस्तु अन्तर सम्बन्धि से आविर्भूत अनेक सम्बन्धी संपत्व होने से भी अनेकधर्मात्मक है। जैसे-एक ही घट अनेक सम्बन्धियों की अपेक्षा पूर्व, पश्चिम, अन्तरित, अनन्तरित, दूर- आसन्न, नवीन-पुराना, समर्थ-असमर्थ, देवदत्तकृत, चैत्र स्वामिकत्व, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग आदि भेद से अनेक व्यवहारों का विषय होता है, क्योंकि सम्बन्धों की अनन्तता से सम्बन्धी भी अनन्त होते हैं, उसी प्रकार ज्ञान, दर्शन आदि अनन्त सम्बन्धियों की अपेक्षा आत्मा भी उन-उन अनेक पर्यायों को धारण करने वाला होने से अनेकधर्मात्मक है। अथवा पुद्गलों के अनन्तता है और उस-उस पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से एक-एक पुद्गलस्थ एक-एक पर्याय की विवक्षा से अनन्तता होती है जैसे-एक ही प्रदेशिनी अंगुली अनन्त पुद्गलों की अपेक्षा अनेक भेदों को धारण करती है.। प्रदेशिनी अंगुली में मध्यमा की अपेक्षा जो भिन्नता है वही अनामिका की अपेक्षा नहीं है, प्रत्येक पररूप का भेद पृथक्-पृथक् है। अतः मध्यमा और अनामिका में
एकत्व नहीं है, क्योंकि.मध्यमा और प्रदेशिनी में अन्यत्व हेतुत्व से अविशेषता है अर्थात् • समानता नहीं है। और न इनका एक-दूसरे की अपेक्षा अर्थ सत्त्व है। मध्यमा ने प्रदेशिनी में ह्रस्वत्व उत्पन्न नहीं किया है। यदि मध्यमा के सामर्थ्य से प्रदेशिनी में हस्वत्व उत्पन्न होता है तो 'शश विषाण' में या 'शक्रयष्टि' में भी. ह्रस्वत्व उत्पन्न होना चाहिये था और न स्वतः प्रदेशिनी में ह्रस्वता होती है, क्योंकि परापेक्षाभाव में उसकी व्यक्ति का अभाव है अन्यथा अनामिका के अभाव में ह्रस्वता की प्रतीति होनी चाहिये थी। अतः अनन्त-परिणामी द्रव्य ही उन-उन सहकारी कारणों की अपेक्षा उन-उन रूपों से व्यवहार में आता है। न तो वह द्रव्य स्वतंत्र ही अनन्तरूप है और न वह सर्वथा परकृत है, (स्याद्वाद से ही इनकी सिद्धि होती है, उसी प्रकार जीव भी कर्म और नोकर्म विषय के सम्बन्ध भेद से उत्पन्न जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, तथा वस्तु उपकरण, कुण्डल, दण्ड आदि, के सम्बन्ध से कुण्डली, दण्डी आदि अनेक पर्यायों को धारण करता है। . पर्यायों की अपेक्षा से वस्तु में अनन्तधर्मात्मकता- अतीत, अनागत और वर्तमानकाल के सम्बन्ध से भी आत्मा अनन्तधर्मात्मक है जैसे-मिट्टी आदि वस्तु में
१. तत्त्वार्थवार्तिक, १/४२, पृ०७०३-७०५ २ वही, पृ० १०५ १००