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जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान
'अभूत' नहीं है, एक रूप का अभाव है अर्थात् 'अ' नहीं है, 'भाव' एकरूपता, जिसमें उसे अभाव कहते हैं। वह अभाव एकरूप है क्योंकि उसमें कोई भेद नहीं पाया. जाता। अतः वह अभाव रूप से एक है परन्तु अभाव से विलक्षण जो भाव है वह तो नाना रूप है- अर्थात् भाव में तो अनेक धर्म और अनेक भेद पाये जाते हैं, अभाव में नहीं। यदि ऐसा नहीं हो भाव और अभाव इन दोनों में अविशेषता हो जायेगी और वे दोनों एक हो जायेंगे। वह भाव ६ प्रकार का है। जन्म, अस्तित्व, विपरिणाम, वृद्धि, अभक्षम और विनाश अर्थात् भाव में ही जन्म, सद्भावादि देखे जाते हैं। बाह्याभ्यन्तर दोनों निमित्तों के कारण आत्मलाभ करना जन्म है। यह इसका विषय है अर्थात् जन्म 'जायते' क्रियापद का विषय है। जैसे-मनुष्य गति आदि नामकर्म के उदय की अपेक्षा से आत्मा मनुष्यादि रूप पर्याय से उत्पन्न होता है, ऐसा कहा जाता है। मनुष्यादि आयु के निमित्तों के अनुसार उस पर्याय में अवस्थान होना उसका सद्भाव, स्थिति या अस्तित्व हैं। इसमें अस्ति क्रिया का सम्बन्ध है। सत्, भाव रूप पदार्थ का अवस्थान्तर, पदार्थ का पर्यायान्तर होना परिणाम है अर्थात् जो पदार्थ जिस रूप से विद्यमान है उसका समूल नाश न होकर उसी में पर्यायों का पलटना परिणाम है। पूर्व स्वभाव को न छोड़कर भावान्तर से आधिक्य हो जाना वृद्धि है (जैसे अनुगत रूप मानव पर्याय को कायम रखते हुए शरीर की वृद्धि होती है)। क्रमशः एकदेश का जीर्ण-शीर्ण होना अपक्षय कहलाता है (जैसे मनुष्य पर्याय को कायम रखते हुए शरीर का क्षीण होना)। सद रूप पदार्थ के पर्याय सामान्य की सर्वथा निवृत्ति का नाम विनाश है जैसे-मनुष्यायु का क्षय हो जाने से मनुष्य पर्याय का नाश । इस प्रकार प्रतिक्षण पर्याय भेद से पदार्थों में अनन्तरूपता होती है। अतः भावात्मक पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है अथवा सत्त्व, ज्ञेयत्व, द्रव्यत्व अमूर्तत्व, अतिसूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, असंख्येयप्रदर्शनत्व, अनादिनिधनत्व और चेतनत्व की दृष्टि से भी जीव अनेक धर्मात्मक है अर्थात् आत्मा नामक पदार्थ सत्स्वरूप है, ज्ञान का विषय होने से ज्ञेय है, गुण पर्याय सहित होने से द्रव्य है, रूपादि रहित होने के कारण अमूर्तिक है, इन्द्रियों का विषय न होने से अतिसूक्ष्म है। एक में अनेक रहने के कारण अवगाहनात्मक है। किसी न किसी आकार से युक्त होने के कारण प्रदेशात्मक है। आत्मा उत्पत्ति और विनाश रहित होने से अनादि निधन है और चेतना गुण से युक्त होने से चेतनात्मक है। इस प्रकार एक ही पदार्थ पर्यायों के भेद से अनेक धर्मस्वरूप है।
आत्मा अनेक शक्तियों का आधार होने से भी अनेक धर्मात्मक है। जैसे घी चिकना है, तृप्ति करता है और उपबृंहण करता है अतः अनेक शक्ति वाला है अथवा