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________________ 66 जैन-न्याय को आचार्य अकलंकदेव का अवदान पारिणामिक चैतन्य (जीव) और अचैतन्य (अज्जीव) द्रव्यार्थ की विवक्षा से कथन करने पर भावानव का जीव द्रव्य में और द्रव्यानव का अजीव द्रव्य में अन्तर्भाव हो जाता है तथा द्रव्यार्थिक नय की गौणता और पर्यायार्थिक नय की प्रधानता से एवं आसवादि प्रतिनियत पर्याय की विवक्षा एवं अनादि पारिणामिक चैतन्य तथा अचैतन्य द्रव्य की अविवक्षा से कथन करने पर जीव और अजीव में आनवादि का अन्तर्भाब नहीं होता, अर्थात् आम्नव बंध आदि स्वतंत्र हैं। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा इनका पृथक् निर्देश सार्थक हैं, निरर्थक नहीं।' __ वस्तु की विधि निषेधात्मकता- जितने भी पदार्थ शब्दगोचर हैं वे सब विधि-निषेधात्मक हैं। कोई भी वस्तु सर्वथा निषेधगम्य नहीं होती। आत्मा शब्द गोचर . है इसलिए उभयात्मक है। जैसे कुरबक पुष्प, लाल और श्वेत दोनों रंग का नहीं होता है तथापि वह वर्णशून्य नहीं है। लाल और सफेद भी नहीं है, प्रतिसिद्धत्व होने से। इसी प्रकार परचतुष्टय की अपेक्षा वस्तु में नास्तित्व होने पर भी स्वदृष्टि से उसका अस्तित्व सिद्ध ही है। कहा भी है- 'कथञ्चित् सत् की थी उपलब्धि और अस्तित्व है तथा कथञ्चित् सत् की उपलब्धि की भी अनुपलब्धि और नास्तित्व है। यदि सर्वथा सत् की अस्ति और उपलबिध है ऐसा मान लिया जाये तो घर की पटादि रूप से भी उपलब्धि होने के कारण सभी पदार्थ सर्वात्मक हो जायेंगे। सर्वथा असत् की अनुपलब्धि एवं नास्तित्व नहीं है, क्योंकि असत् का भी सर्वथा अनुपब्धि एवं नास्तित्व मान लेने पर पदार्थ वचन के अगोचर हो जायेंगे अर्थात् पदार्थ का अभाव हो जाने से वह शब्द का विषय ही नहीं हो सकेगा। पर्याय और पर्यायी में अनेकान्त- पर्याय और पर्यायी के भेद और अभेद में घटादि के समान अनेकान्तपना है। जैसे घट, कपाल, सिकोरा, धूलि आदि में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों की अपेक्षा कथंकित एकत्व है और कथञ्चित् भिन्नत्व है क्योंकि यदि इसमें पर्यायार्थिक नय की गौणता हो तथा द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता हो और पर्याय की अविवक्षा तथा मिट्टी रूप अनुपयोगी अजीव द्रव्य की विवक्षा से वर्णन किया जाये तो घट, कपालादि में एकत्व है, क्योंकि घट कपालादि मिट्टी रूप द्रव्य को नहीं छोड़ते हैं। यदि द्रव्यार्थिक नय की गौणता हो, पर्यायार्थिक नय की मुख्यता हो, द्रव्य की अविवक्षा और बाह्याभ्यन्तर कारण जनित पर्याय की विवक्षा से कथन किया जाये तो घट, कपालादि में अन्यत्वपना है, क्योंकि घर पर्याय और कपालादि पर्याय १. तत्त्वार्थवार्तिक हिन्दी भाषानुवादिका- आर्यिका श्रीसुपार्श्वमती माताजी, पृ० ६७-६८ २. वही, पृ० ३२८
SR No.002233
Book TitleJain Nyaya me Akalankdev ka Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1999
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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